SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मुझे अपने सम्पूर्ण श्रम की सार्थकता का अनुभव तब और अधिक हुआ, जब देश के अनेक प्रतिष्ठित विद्वानों ने मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन नामक मेरे शोध-प्रबन्ध की सराहना की और दिगम्बर (महावीर पुरस्कार एवं शास्त्री पुरस्कार) तथा श्वेताम्बर (साधुमार्गी संघ बीकानेर (राज.) द्वारा चम्पालाल साहित्य पुरस्कार)-इस तरह तीन पुरस्कारों से एक साथ यह शोध-प्रबन्ध पुरस्कृत हुआ । मुझे यह भी देख-सुनकर प्रसन्नता होती है कि जहाँ यह परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी जैसे अनेक उत्कृष्ट आचार्यों एवं सन्तों, विद्वानों द्वारा प्रशंसित हुआ वहीं यह शोध-प्रबन्ध ऐसा आधारभूत ग्रन्थ बन गया है कि इसके आधार पर इस विषयक अनेक शोध-प्रबन्ध तैयार हो चुके और हो रहे हैं। साथ ही सभी सुधी स्वाध्यायी पाठकों की दृष्टि में यह अपने विषय का एक परिपूर्ण शोध एवं सन्दर्भ ग्रन्थ की विशेषताओं से युक्त है, जिसमें दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्परा के श्रमणाचार-परक आगम ग्रन्थों का तुलनात्मक विषय-विवेचन प्रस्तुत किया गया है । इसीलिए यह अनेक विश्वविद्यालयों के सम्बद्ध विषय के पाठ्यक्रमों में सहायक पाठ्यग्रन्थ के रूप में सम्मिलित है । ___ इस तरह मुझे पूर्वोक्त शोध-प्रबन्ध के प्रकाशन के समय भी इसके षड्आवश्यक अधिकार को स्वतन्त्र आवश्यक नियुक्ति के रूप में प्रकाशित करने की भावना और दृढ़ बनी रही । इसके बाद मूलाचार पर ही एक बार पुनः कई वर्षों तक कार्य करने का सौभाग्य हमें तब मिला, जब हमें पं. नन्दलाल जी छावड़ा (पं. जयचन्द जी छावड़ा के ज्येष्ठ सुपुत्र) द्वारा लिखित "मूलाचार भाषावचनिका" की हस्तलिखित दुर्लभ पाण्डुलिपि की उपलब्धि देहरा-तिजारा (राजस्थान) अतिशय क्षेत्र के पुराने बड़े जैन मन्दिर से हुई। मूलाचार-भाषावचनिका नामक इस बृहद् ग्रन्थ के सम्पादन का कार्य मैंने अपनी सहधार्मिणी श्रीमती डॉ. मुन्नी पुष्पा जैन के सहयोग से लगभग चार वर्षों में पूरा किया । आचार्यश्री विमलसागर जी एवं उपाध्यायश्री भरतसागर जी के शुभाशीष से इसके प्रकाशन में भी दो वर्ष का समय लगा । बड़े आकार में लगभग १००० पृष्ठों में यह बृहद्ग्रन्थ सन् १९९६ में अनेकान्त विद्वत्परिषद् से प्रकाशित हुआ और यह ग्रन्थ उ०प्र० संस्कृत संस्थान, लखनऊ से विशिष्ट पुरस्कार से पुरस्कृत भी हुआ है । उ०प्र० के तत्कालीन राज्यपाल महामहिम सूरजभान जी ने लखनऊ स्थित उनके राजभवन में आयोजित एक विशेष समारोह में हम दोनों को यह पुरस्कार और ग्यारह हजार रूपये की धनराशि से सम्मानित किया था । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy