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वर्ग सहित) करने के बाद जब यहाँ से शोध हेतु सम्बद्ध पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी से पी-एच.डी. के लिए "मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन" विषय पर शोधकार्य हेतु मेरा पंजीयन हुआ तब शोधकार्य आगे बढ़ाने के लिए मूलाचार का अध्ययन और इसका हार्द समझने के लिए मुझे सुप्रसिद्ध विद्वान् सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द जी शास्त्री, आ० गुरुवर्य पं. कैलाशचन्द जी सिद्धान्ताचार्य, श्रद्धेय पं. जगमोहनलाल जी सिद्धान्तशास्त्री एवं मेरे शोध निदेशक आ० डॉ. मोहनलाल जी मेहता का लम्बे समय तक सानिध्य प्राप्ति का सौभाग्य प्राप्त हुआ इसी समय मूलाचार के इस षडावश्यकाधिकार पर विशेष ध्यान गया कि यह तो मूल रूप में आवश्यक नियुक्ति है ।
मूलाचार पर दो-तीन वर्ष में शोधकार्य पूरा करने के साथ ही मुझे लाडनूं (राजस्थान) में आचार्यश्री तुलसीजी महाराज की प्रेरणा से उस समय कुछ ही वर्ष पूर्व स्थापित और संचालित जैन विश्व भारती में प्राकृत एवं जैनविद्या के प्राध्यापक पद पर मेरी नियुक्ति सन् १९७६ के मध्य हो गयी । यहाँ लगभग चार वर्षों में (सन् १९७९ तक) कड़े श्रमपूर्वक बहुत कुछ पढ़ने-पढ़ाने, लिखने एवं अपने ज्ञानवर्द्धन के अपूर्व लाभ प्राप्त हुए । एक विशेष उपलब्धि यह हुई कि यहाँ मुझे एक तरफ अर्धमागधी आगम साहित्य के अनेक आगम ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापन के दुर्लभ अवसर प्राप्त हुए, वहीं दिगम्बर परम्परा के शौरसेनी आगम ग्रन्थों के अध्यापन-अध्ययन का भी प्रभूत लाभ प्राप्त हुआ ।
यहाँ मैंने यह भी सीखा और अनुभव किया कि भले ही हमारी परम्परा विशेष के प्रति गहरी आस्था हो, किन्तु जैन विद्या के व्यापक अध्ययन और ज्ञान के लिए बिना किसी आग्रह-दुराग्रह के, दोनों परम्पराओं के आगम. एवं आगमेतर शास्त्रों का गहन अध्ययन अति आवश्यक है, अन्यथा हम बहुत बड़े लाभ से वंचित हो जाते हैं।
जैन विश्व भारती लाडनूं (राज०) में अध्यापन काल में मैंने जो अर्द्धमागधी आगमों का अध्ययन किया, उसका भरपूर उपयोग मैंने अपने प्रकाशित शोधप्रबन्ध “मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन" (प्रका०-पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, सन् १९८७) में किया है । इस पर सन् १९७६ में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. उपाधि प्राप्ति के बाद, इसके प्रकाशन के पूर्व लगभग आठ-दस वर्षों तक के समय का मैंने अहर्निश लगातार पूरे मनोयोग से मात्र इसी शोध-प्रबन्ध को अधिकाधिक परिपूर्ण करने एवं संजोने में सदुपयोग ' किया ।
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