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सव्वावासणिजुत्तो णियमा सिद्धोत्ति होइ णायव्यो। ..
अह णिस्सेसं कुणदि ण णियमा आवासया होति ।। १८३।। अर्थात् सभी षड्-आवश्यकों से परिपूर्ण हुए मुनि नियम से सिद्ध हो जाते हैं । किन्तु जो इनका परिपूर्ण रूप से पालन नहीं करते (पूर्ण सावधानी के बाद भी कुछ कमी रह जाती है) वे नियम से स्वर्गादि में आवास करते हैं, जिन्हें उसी भव से मोक्ष नहीं हो पाता ।
इसलिए अन्त में आचार्य वट्टकेर आवश्यक करने की विधि बतलाते
तियरण सव्वविसुद्धो दव्वे खेत्ते यथुत्तकालम्हि । .. मोणेणव्वाखित्तो कुज्जा आवासया णिच्चं ।।१८५।।
अर्थात् मन-वचन-काय रूप त्रिकरण से सर्व विशुद्ध हो, द्रव्य, क्षेत्र और आगम कथित काल में निराकुलचित्त होकर मौन पूर्वक नित्य ही इन आवश्यकों का पालन करना चाहिए । आवश्यक चूलिका का उपसंहार स्पष्ट करते हुए कहते हैं
णिज्जुत्ती णिज्जुत्ती एसा कहिदा मए समासेण ।
अह वित्थारपसंगोऽणियोगदो होदि णादव्यो ।।१८८।। अर्थात् मैंने यहाँ संक्षेप में इस नियुक्ति की नियुक्ति कथन किया है । यदि इसका विस्तार कथन जानना चाहते हैं तो अन्य अनियोग (अनुयोग) (वृत्तिकार ने अनियोग का अर्थ "आचारांग" किया है) ग्रन्थों से जानना चाहिए ।
आचार्य वट्टकेर चूलिका सहित प्रस्तुत आवश्यक नियुक्ति का उपसंहार करते हुए अन्तिम गाथा में कहते हैं
आवासयणिज्जुत्ती एवं कधिदा समासओ विहिणा ।
जो उवजुंजदि णिच्चं सो सिद्धिं जादि विसुद्धप्पा ।।१८९।। अर्थात् इस तरह मैंने विधिवत् संक्षेप में आवश्यक नियुक्ति कही है, जो नित्य ही इनका आचरण (प्रयोग पूर्वक पालन) करता है, वह सर्वकर्म रहित विशुद्धात्मा सिद्धि को प्राप्त कर लेता है ।
प्रकाशन की मनोभावना-इस प्रकार मूलाचार गत प्रस्तुत आवश्यक नियुक्ति के महत्त्व को देखते हुए इसे स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित करने की मेरी मंगल भावना लगभग पिछले तीस-पैंतीस वर्षों से रही है । क्योंकि सन् १९७२ में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एम. ए. संस्कृत-(जैन एवं बौद्धविद्या
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