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________________ १७६ जैन श्रमण के षड्-आवश्यक : एक तुलनात्मक अध्ययन विनयकर्म के भेद-प्रभेदों का चार्ट-विनयकर्म के सभी भेद-प्रभेदों को चार्ट द्वारा इस प्रकार समझा जा सकता है विनयकर्म लोकानुवृत्तिविनय अर्थनिमित्तकविनय कामतन्त्रविनय भयविनय मोक्षविनय दर्शन ज्ञान चारित्र तप औपचारिक काल ज्ञान उपधान बहुमान अनिह्नव व्यंजनशुद्ध अर्थशुद्ध व्यंजनार्थोभयशुद्ध कायिक वाचिक मानसिक हित मित परिमित अनुवीचि भाषण अकुशल- कुशलमन:प्रवृत्ति मन:निरोध अभ्युत्थान सन्नति आसनदान अनुप्रदान कृतिकर्म-प्रतिरूप आसनत्याग अनुव्रजन ४. प्रतिक्रमण-आवश्यक स्वरूप-वन्दना की तरह प्रतिक्रमण भी षडावश्यकों में श्रमणाचार का प्रमुख अंग है । जहाँ प्रतिक्रमण छह आभ्यन्तरों तपों में प्रथम-प्रायश्चित्त तप के दस भेदों में आलोचना के बाद दूसरे क्रम में है, वहीं दस स्थितकल्पों में आठवाँ स्थितिकल्प तथा मुनियों के सामायिक आदि छह आवश्यकों में चतुर्थ आवश्यक के रूप में प्रतिक्रमण का प्रतिपादक किया गया है ।। सामान्यत: श्रमण जिस क्रिया के द्वारा किये गए दोषों, अपराधों एवं पापों का प्रक्षालन करके शुद्ध होता है उसे प्रतिक्रमण कहते हैं । अतः प्रमाद पूर्वक किये गये अतीतकालीन दोषों का निराकरण करना प्रतिक्रमण है । भगवती आराधना विजयोदया टीका (पृ० १५५) के अनुसार “प्रतिक्रमणं प्रतिनिवृत्तिः” अर्थात् १. (क) गोम्मटसार जीवकाण्ड ३६७ । (ख) अतीतकालदोषनिर्हरणं प्रतिक्रमणम्-मूलाचार वृत्ति १/२७ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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