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________________ आवश्यकनियुक्तिः १७५ इस लक्षण के आधार पर इस मानसिक औपचारिक विनय के भी अकुशल-मन:निरोध और कुशल-मन:प्रवृत्ति-ये दो भेद हैं ।' कुन्दकुन्द कृत० मूलाचार में इन्हीं भेदों का अशुभ-मन:सनिरोध और शुभ-मन:संकल्प नाम से उल्लेख किया गया है । औपचारिक विनय के उपर्युक्त तीन भेदों में से प्रत्येक के प्रत्यक्ष और परोक्ष-ये दो-दो उपभेद भी होते हैं । __उपर्युक्त सभी प्रकार की विनय का अप्रमत्तभाव से रात्र्यधिक मुनियों अर्थात् दीक्षा, श्रुत और तप–इनमें ज्येष्ठ मुनियों के प्रति तथा ऊनरात्रिक मुनियों में अर्थात् तप, गुण एवं वय में छोटे योग्य मुनियों में तथा आर्यिकाओं और गृहस्थों (श्रावकों) के प्रति भी साधु को यथायोग्य पालन करना चाहिए । ___ इस प्रकार वट्टकेर ने वन्दना आवश्यक के प्रसंग में विनयकर्म का विस्तृत भेद-प्रभेदों के साथ वर्णन किया है । प्रसंगानुसार विनय की उच्च महिमा का वर्णन भी किया है । यह जिनशासन का मूल है । इसी से संयम, तप और ज्ञान होता है । विनयहीन व्यक्ति को धर्म और तप कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता है ।५ । . विनयकर्म की विशेषतायें-जिस प्रकार यूँघट स्त्री की सुन्दरता को बढ़ा देता है उसी प्रकार विनय की छाया मनुष्य के सद्गुणों को और अधिक उत्तम बना देती है। विनयवान श्रमण कलह और संक्लेश परिणामों से रहित, निष्कपटी, निरभिमानी और निर्लोभी होता है । वह गुरु की सेवा करने तथा सभी को सुख देने वाला होता है । उसकी कीर्ति और मैत्री बढ़ती ही रहती है; क्योंकि उसमें मान का अभाव होता है । शीलवान् व्यक्ति के विनययुक्त भाषण से सत्य में अधिक तेजस्विता आती है। अत: श्रमण को सभी प्रयत्नों से विनय का पालन करते हुए लक्ष्यसिद्धि में तत्पर रहना चाहिए । क्योंकि अल्पज्ञांनी पुरुष भी विनयकर्म से अपने कर्मों का क्षय करता है । .१-२. कुन्द० मूलाचार ५/२०९ । ३. सो पुण सव्वो दुविहो पच्चक्खो तह परोक्खे य । मूलाचार ५/१७५ । ४. रादणिए ऊणरादिणिएसु अ अज्जासु चेव गिहिवग्गे । विणओ जहारिओ सो कायव्वो अप्पमत्तेण ॥ मूलाचार ५/१८७ । ५. विणओ सासणमूलो विणयादो संजमो तवो णाणं ।। विणयेण विप्पहूणस्स कुदोधम्मो कुदो य तवो ॥ कुन्द० मूलाचार ७/१०४ ६. मूलाचार ५/१९०, भगवती आराधना १३० । ७. वही ५/१९१, वही १३१ । मूलाचार ७/९२ । '८. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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