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________________ जैन श्रमण के षड्- आवश्यक : एक तुलनात्मक अध्ययन कालानुसार क्रिया अर्थात् उष्ण काल में शीत तथा शीत काल में उष्णक्रिया करने का प्रयत्न करना, आदेश का पालन करना, संस्तर बिछाना तथा प्रातः एवं सायं पुस्तक, कमण्डलु आदि उपकरणों का प्रतिलेखन (शोधन) करना — इत्यादि प्रकार से अपने शरीर के द्वारा यथायोग्य उपकार करना अधिक उपचार विनय है । १ १७४ उपर्युक्त लक्षणों के आधार पर प्रथम कायिक- औपचारिक - विनय के सात भेद इस प्रकार हैं (१) कायिक औपचारिक विनय के सात भेद - १. अभ्युत्थान – आचार्य आदि गुरुजनों के आने पर आदरपूर्वक उठना, २. सन्नति – मस्तक से नमन करना, ३. आसनदान, ४. अनुप्रदान — पुस्तकादि देना, ५ कृतिकर्म प्रतिरूप – सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति और गुरुभक्ति - पूर्वक यथायोग्य कायोत्सर्ग करना, ६. आसनत्याग — गुरुजनों के आने पर या उनके समक्ष अपना आसन छोड़कर उनका सम्मान दान द्वारा विनय करना और ७. अनुव्रजन— उनके पीछे-पीछे चलना या गमनकाल में कुछ दूर तक साथ जाना । २ (२) वाचिक औपचारिक विनय — पूज्यभाव रूप बहुवचन युक्त, हित, मित और मधुर, सूत्रानुवीचि ( आगमानुकूल), अनिष्ठुर, अकर्कश, उपशांत, अगृहस्थ (बन्धन, ताड़न, पीडन आदि रहित) अक्रिय और अलीहन (अपमानरहित) वचन बोलना वाचिक उपचार विनय है । इस लक्षण के आधार पर इस वाचिक औपचारिक विनय के हित, मित, परिमित (सकारण) और अनुवीचि (आगमानुकूल) भाषण करना - - ये चार भेद हैं (३) मानसिक औपचारिक विनय - हिंसादि पाप और विश्रुति रूप सम्यक्त्व की विराधना के परिणामों का त्याग करना तथा प्रिय और हित परिणामयुक्त होना मानसिक उपचार विनय है । ६ १. मूलाचार ५ / १७६ - १७९, भगवती आराधना ११९ - १२२ । २. मूलाचार ५/१८४-१८५, अनगारधर्मामृत ७/७१ । ३. मूलाचार ५/१८०-१८१, भगवती आराधना १२३ - १२४ । ४. ५. ६. वही ५/१८६ । ५/१८२, भगवती आराधना ११५ । वही ५/१८६ | Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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