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________________ ३. चारित्र - विनय – इन्द्रिय और कषाय के प्रणिधान या परिणाम का त्याग तथा गुप्ति, समिति आदि चारित्र के अंगों का पालन करना चारित्र विनय है । इस विनय में तत्पर मुनि पुरानी कर्मरज को नष्ट करके नवीन कर्मों का बन्ध नहीं करता । ४. तप - विनय - संयम रूप उत्तरगुणों में उद्यम करना, श्रम व परीषहों को अच्छी तरह सहन करना, यथायोग्य आवश्यक क्रियाओं में हानि-वृद्धि न होने देना, तप तथा तपोज्येष्ठ श्रमणों में भक्ति रखना और छोटे तपस्वियों, चारित्र - धारी मुनियों की अवहेलना न करना तप - विनय है । यह आत्मा के अंधकार को दूर कर, उसे मोक्ष - मार्ग की ओर ले जाता है । इससे बुद्धि नियमित (स्थिर) होती है । आवश्यक नियुक्तिः ५. औपचारिक विनय — रत्नत्रय के धारक श्रमण के अनुकूल भक्तिपूर्वक प्रवृत्ति करना औपचारिक विनय है । गुरु आदि का यथायोग्य विनय करना भी उपचार विनय है ।, औपचारिक विनय के कायिक, वाचिक और मानसिक — ये तीन भेद इस प्रकार हैं । २. ३. ४. (१) कायिक औपचारिक विनय - आचार्यादि गुरुजनों को आते देख आदर - पूर्वक आसन से उठना, कृतिकर्म अर्थात् श्रुतभक्ति और गुरुभक्ति पूर्वक कायोत्सर्ग आदि करना, मस्तक से नमन करना अर्थात् ऋषियों को अंजुलि जोड़कर नमन करना, उनके आने पर साथ जाना, उनके पीछे खड़े होना, प्रस्थान के समय उनके पीछे-पीछे चलना, उनसे नीचे वामपार्श्व की ओर बैठना, उनसे नीचे वामपार्श्व की ओर से गमन करना, उनसे नीचे आसन पर सोना । आसन, पुस्तकादि उपकरण, ठहरने के लिए प्रासुक गिरि-गुहादि खोजकर देना, उनके शरीर बल के प्रतिरूप शरीर का संस्पर्शन मर्दन करना । ५. ६.' ७. १७३ मूलाचार ५/१७२, भगवती आराधना ११५ । वही ७ / ९० । मूलाचार ५ / १७३ । वही ५ / १७४, भगवती आराधना ११७ । वही ७/९१ । कार्तिकेयानुप्रेक्षा ४५८ । मूलाचार ५/१७५, १८४ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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