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आवश्यकनियुक्तिः
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दोषों की निवृत्ति को प्रतिक्रमण कहा है । स्थितिकल्प के प्रसंग में "अचेलतादि कल्प स्थितस्य यद्यतिचारो भवेत् प्रतिक्रमणं कर्त्तव्यमित्येषोऽष्टमः (प्रतिक्रमण) स्थितिकल्प:' अर्थात् अचेलता आदि कल्प में स्थित साधु के यदि अतिचार लगता है तो उसे प्रतिक्रमण करना अष्टम स्थितिकल्प कहा है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रतिक्रमण का विवेचन भगवती आराधना में भले ही तीनों प्रसंगों में आया हो किन्तु उन सबका उद्देश्य द्रव्य, क्षेत्र, काल
और भावपूर्वक किये गये अपराधों, दोषों की मन, वचन और काय से निन्दा और गर्हा (गुरु के समक्ष अपनी भूलों को प्रकट करना) के द्वारा उनका शोधन करना प्रतिक्रमण है ।
पर्यायवाची नाम-अर्धमागधी परम्परा की आवश्यक-निर्यक्ति (गाथा १२३३) में प्रतिक्रमण के आठ पर्यायवाची नाम बतलाये हैं, जो इस प्रकार
१. प्रतिक्रमण-सावधयोग से विरत होकर आत्मशुद्धि में लौट आना । २. प्रतिचरणा-अहिंसा, सत्य आदि संयम में सम्यक् रूप से विचरना । ३. परिहरणा-सभी तरह के अशुभ योगों का त्याग । ४. वारणा–विषय भोगों से स्वयं को रोकना । ५. निवृत्तिः-अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्त होना । ६. निन्दा-पूर्वकृत अशुभ आचरण के लिए पश्चाताप करना । ७. गर्दा-गुरु आदि के समक्ष अपने अपराधों की निन्दा करना ।
८. शुद्धि-कृत दोषों की आलोचना, निन्दा, गर्दा करते हुए तपश्चरण द्वारा. आत्मशुद्धि करना ।
प्रतिक्रमण के अंग-प्रतिक्रमण के तीन अंग हैं:-१. प्रतिक्रामकअर्थात् प्रमादादि से लगे दोषों से निवृत्त होने वाला साधु प्रतिक्रामक कहलाता है । २. प्रतिक्रमण-पंचमहाव्रतादि में लगे अतिचारों से निवृत्त होकर महाव्रतों की निर्मलता में पुनः प्रविष्ट होने वाले जीव के उस परिणाम का नाम प्रतिक्रमण है। ३. प्रतिक्रमितव्य-भाव, गृह आदि क्षेत्र, दिवस, मुहूर्तादि दोषजनक काल तथा सचित्त, अचित्त एवं मिश्र रूप द्रव्य, जो पापास्रव के कारण हों, ये सब प्रतिक्रमितव्य (त्याग के योग्य) हैं ।
१. दव्वे खेत्ते काले भावे य कावराहसोहणयं ।
णिंदणगरहणजुत्तो मणवचकायेण पडिक्कमणं । मूलाचार १/२६ । . 2. ' पडिकमओ पडिकमणं पडिकमिदव्वं च होदि णादव्वं ।
एदेसिं पत्तेयं परूवणा होदि तिण्हंपि ।। मूलाचार ७/११७
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