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________________ १४८ स्तस्य भावतो निषिद्यका भवति । 'अनिषिद्धस्य स्वेच्छाप्रवृत्तस्यानिषिद्धात्मनश्चलचित्तस्य कषायादिवशवर्त्तिनो निषिद्यका शब्दो भवति केवलं शब्दमात्रकरणं तस्येति ॥ १८६॥ आसिकार्थमाह आसाए विप्पमुक्कस्स आसिया होदि भावदो । आसाए अविप्पमुक्कस्स सद्दो हवदि केवलं ।। १८७ ।। आवश्यक नियुक्तिः आशया विप्रमुक्तस्य आसिका भवतिः भावतः । आशया अविप्रमुक्तस्य शब्दो भवति केवलम् ॥ १८७॥ आशया कांक्षया विविधप्रकारेण मुक्तस्य आसिका भवति भावतः परमार्थतः, आशया पुनरविप्रमुक्तस्यासिकाकरणं शब्दो भवति केवलं, किमर्थमासिका निषिद्यकयोरत्र निरूपणमिति चेन्न त्रयोदशकरणमध्ये पठितत्वात्, यथाऽत्र पंचनमस्कारनिरूपणं षडावश्यकानां च निरूपणं कृतमेवमनयोरप्यधिकारात् भवतीति नामस्थाने निरूपणमनयोरिति ॥ १८७॥ होती है । किन्तु जो अनिषिद्ध हैं अर्थात् स्वेच्छा से प्रवृत्ति करने वाले हैं, जिनका चित्त चंचल है, जो कषाय से वशीभूत हो रहे हैं उनके निषिद्यका शब्द केवल शब्दमात्र ही है ॥ १८६॥ आसिका का अर्थ कहते हैं गाथार्थ - आशा से रहित मुनि के भाव से आसिका होती है, किन्तु आशा से सहित मुनि के शब्द मात्र होती है ॥ १८७॥ आचारवृत्ति - आशा अर्थात् कांक्षा से जो विविध प्रकार से मुक्त हैं- उनके परमार्थ (भाव) से आसिका होती है, किन्तु जो आशा से मुक्त नहीं हुए हैं उनके आसिका करना केवल शब्द मात्र ही है । प्रश्न – यहाँ पर आसिका और निषिद्यका का निरूपण क्यों किया ? इसलिए किया है, क्योंकि तेरह प्रकार के करण में इनको लिया गया है । जिस प्रकार से यहाँ पर पंच- नमस्कार का निरूपण किया गया है और छह आवश्यक क्रियाओं का निरूपण किया गया है। उसी प्रकार से यहाँ पर इन दोनों का भी अधिकार है । इसलिए नाम के स्थान पर इनका निरूपण किया है ॥ १८७॥ क० अनिसितस्य । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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