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________________ आवश्यक निर्युक्तिः आवश्यककरणविधानमाह तियरण सव्वावसुद्धो दव्वे खेत्ते यथुत्तकाल ि। मोणेणव्वाखित्तो कुज्जा आवासया णिच्चं ।। १८५ ।। त्रिकरणैः सर्वविशुद्धः द्रव्ये क्षेत्रे यथोक्तकाले । मौनेनाव्याक्षिप्तः कुर्यादावश्यकानि नित्यं ॥ १८९॥ १४७ त्रिकरणैर्मनोवचनकायैः सर्वथा शुद्धो द्रव्यविषये क्षेत्रविषये यथोक्तकाले आवश्यकानि नित्यं मौनेनाव्याक्षिप्तः सन् कुर्याद्यतिरिति ॥ १८५ ॥ अथासिकानिषिद्यकयोः किंलक्षणमित्याशंकायामाह - जो होदि णिसीदप्पा णिसीहिया तस्स भावदो होदि । अणिसिद्धस्स णिसीहियसद्दो हवदि केवलं तस्स ।। १८६ ।। यो भवति निसितात्मा निषिद्यका तस्य भावतो भवति । अनिसितस्य निषिद्यका- शब्दो भवति केवलं तस्य ॥ १८६॥ यो भवति निसितो बद्ध आत्मपरिणामो येनासौ निसितात्मा निगृहीतेन्द्रियकषायचित्तादिपरिणामोऽसौ निसितात्माऽथ वा निषिद्धात्मा सर्वथा नियमितमति आवश्यक करने की विधि बताते हैं क्षेत्र गाथार्थ - मन-वचन-काय रूप त्रिकरण से सर्व विशुद्ध हो, द्रव्य में, में और आगम-कथित काल में मौनपूर्वक निराकुल चित्त होकर नित्य ही आवश्यकों को करें ॥ १८५ ॥ आचारवृत्ति — मन, वचन, काय से सर्वथा शुद्ध हुए मुनि द्रव्य के विषय में, क्षेत्र के विषय में तथा आगम में कहे गए काल में निराकुलचित्त होकर नित्य ही मौन पूर्वक आवश्यक क्रियाओं का अनुष्ठान करें ॥ १८५ ॥ आसिका और निषिद्यका का क्या लक्षण है ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं गाथार्थ - जो निसितात्मा (निसमित आत्मा) है उसके भाव से निषिद्यका होती है । जो अनियंत्रित है उसके निषिद्यका शब्द मात्र से होता है ॥ १८६॥ 1 Jain Education International आचारवृत्ति - जिसने अपनी आत्मा के परिणाम को बाँधा (रोका) हुआ है, वह निसितात्मा है, अर्थात् जिसने इन्द्रिय, कषाय और चित्त आदि परिणाम का निग्रह किया हुआ है । अथवा निषिद्धात्मा अर्थात् जिनकी सर्वथा नियमित - नियंत्रित मति है ऐसे मुनि निषिद्धात्मा है। ऐसे मुनि के भाव से निषिद्यका For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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