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________________ १४६ आवश्यक नियुक्तिः आवासयन्ति प्रच्छादयन्तीति आवासकाः प्रच्छादकाः नियमाद्भवन्तीत्यर्थः । अथवा संसारे आवासयन्ति स्थापयन्तीत्यर्थः ॥ १८३॥ अथवाऽऽवासकानामयमर्थ इत्याह आवासयं तु आवसएसु सव्वेसु अपरिहीणेसु । मणवयणकायगुत्तिंदियस्स आवासया होंति ।। १८४।। आवासनं तु आवश्यकेषु सर्वेषु अपरिहीनेषु । मनोवचकायगुप्तोंद्रियस्य आवश्यका भवति ।। १८४।। मनोवचनकार्यैर्गुप्तानीन्द्रियाणि यस्यासौ मनोवचनकायगुप्तेन्द्रियस्तस्य मनोवचनकायगुप्तेन्द्रियस्य सर्वेष्वाश्यकेष्वपरिहीणेष्वावसनमवस्थानं आवश्यकाः साधोर्भवंति परमार्थतोऽन्ये पुनरावासकाः कर्मागमहेतव एवेति । यत्तेन अथवा आवासयन्तु इति प्रश्नवचनं, आवश्यकानि सम्पूर्णानि कथंभूतस्य पुरुषस्य भवन्तीति प्रश्ने तत आह— सर्वेषु चापरिहीणेषु मनोवचनकायगुप्तेन्द्रियास्यावश्यकानि भवन्तीति निर्देशः कृत इति ॥ १८४॥ यदि सविशेष रूप से आवश्यक करते हैं तब तो ये सिद्ध अर्थात् कर्मों के क्षय में समर्थ हो जाते हैं और यदि निर्विशेष (शिथिल) भाव से करते हैं तो उस यति के वे नियम-सामायिक आदि क्रियाएँ उसे आवासित - प्रच्छादित कर देते हैं, नियम से ऐसा होता है । अथवा उनका संसार में आवास कराते हैं । ऐसा समझना ॥१८३॥ अथवा आवासकों का अर्थ बतलाते हैं गाथार्थ — हीनता रहित सभी आवश्यकों में जो आवास करता है, वह ही मन, वचन, काय से इन्द्रियों को वश करने वाले आवश्यक होते हैं || १८४|| आचारवृत्ति- - मन-वचन-काय से जिसकी इन्द्रियाँ गुप्त हैं, वशीभूत हैं वह मन-वचन-काय गुप्तेन्द्रिय अर्थात् त्रिकरण जितेन्द्रिय कहलाता है । उसका जो न्यूनता रहित सम्पूर्ण आवश्यकों में अवस्थान (रहना) है । उसी हेतु से साधु के परमार्थ से आवश्यक होते हैं, किन्तु अन्य जो हैं, वे आवासक अर्थात् कर्मागमन के हेतु ही हैं । अथवा I आवासयंतु' यहाँ प्रश्नवचन हैं कि ये आवश्यक किस पुरुष के सम्पूर्ण होते हैं ? तब कहते हैं - तब पूर्वोक्त उत्तर निर्देश किया है अर्थात् जिनके मनवचन- काय गुप्तेन्द्रिय वशीभूत हैं उनके ही आवश्यक परिपूर्ण होते हैं - ऐसा निर्देश है ॥ १८४॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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