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आवश्यक नियुक्तिः
आलोकनं दिशानां ग्रीवोन्नमनं प्रणमनं च । निष्ठीवनमंगामर्शं कायोत्सर्गे वर्जयेत् ॥१६९॥
कायोत्सर्गेण स्थितो दिशामालोकनं वर्जयेत्, तथा कायोत्सर्गेण स्थितो ग्रीवोन्नमनं वर्जयेत् तथा कायोत्सर्गेण स्थितः सन् प्रणमनं च वर्जयेत्, तथा कायोत्सर्गेण स्थितो निष्ठीवनं षाट्करणं च वर्जयेत् तथा कायोत्सर्गेण स्थितोंऽगामर्शं शरीरपरामर्शं वर्जयेदेतेऽपि दोषाः सन्त्यतो वर्जनीयाः । दशानां दिशामवलोकनानि दश दोषाः शेषा एकैका इति ॥१६९॥
यथा यथोक्तं कायोत्सर्गं' कुर्वन्ति तथाह
णिक्कडं सविसेसं बलाणुरूवं वयाणुरूवं च । काओसग्गं धीरा करंति दुक्खक्खयट्ठाए । । १७० ।।
आचारवृत्ति - १९-२८. दिशा अवलोकन - कायोत्सर्ग में स्थित हुए दिशाओं का अवलोकन करना । पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, ईशान, ऊर्ध्व और अधः – इन दस दशाओं के निमित्त से दस दोष हो जाते हैं । ये दिशावलोकन दोष है ।
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१.
निःकूटं सविशेषं बलानुरूपं वयोनुरूपं च । कायोत्सर्गं धीराः कुर्वंति दुःखक्षयार्थम् ॥१७०॥
२९. ग्रीवोन्नमन - कायोत्सर्ग में स्थित होकर गरदन को अधिक ऊँची करना यह ग्रीवा उन्नमन दोष है ।
३०. प्रणमन – कायोत्सर्ग में स्थित हुए गरदन को अधिक झुकाना या प्रणाम करना प्रणमन दोष है ।
३१. निष्ठीवन — कायोत्सर्ग में स्थित होकर खखारना, थूकना यह निष्ठीवन दोष है ।
३२. अंगामर्श - कायोत्सर्ग में स्थित हुए शरीर का स्पर्श करना यह अंगामर्श' दोष है ॥ १६९ ॥ | इस प्रकार कायोत्सर्ग के ये बत्तीस दोष हैं । जिन विशेषताओं के कारण मुनि यथोक्त कायोत्सर्ग करते हैं, उन्हें बतलाते हैं
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गाथार्थ - धीर मुनि मायाचार रहित, विशेष सहित, बल और उम्र के अनुरूप दुःखों के क्षय हेतु कायोत्सर्ग करते हैं ॥ १७०॥
क० करोति ।
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