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________________ आवश्यकनियुक्तिः १३५ १३५ तथासीसपकंपिय मुइयंह अंगुलि भूविकार वारुणीपेयी । काओसग्गेण ठिदो एदे दोसे परिहरेज्जो ।।१६८।। शिर:प्रकंपितं मूकत्वं अंगुलिभ्रूविकार: वारुणीपायी । कायोत्सर्गेण स्थितः एतान् दोषान् परिहरेत् ।।१६८॥ शिरःप्रकंपितं कायोत्सर्गेण स्थितो य: शिरः प्रकंपयति चालयति तस्य शिरःप्रकंपितदोषः, मुइयं मूकत्वं मूक इव य: कायोत्सर्गेण स्थितो मुखविकारं नासिकाविकारं च करोति तस्य मूकितदोषः, तथा य: कायोत्सर्गेण स्थितोऽगुलिगणनां करोति तस्यांगुलिदोषः, तथा भूविकार भूविकारः कायोत्सर्गेण स्थितो यो भूविक्षेपं करोति तस्य भूविकारदोषः पादांगुलिनर्तनं वा, तथा यो वारुणीपायीवसुरापायीवेति घूर्णमान: कायोत्सर्ग करोति तस्य वारुणीपायीदोषः, तस्मादेतान् दोषान् कायोत्सर्गेण स्थित: सन् परिहरेद्वर्जयेदिति ॥१६८॥ तथेमांश्च दोषान् परहरेदित्याह आलोगणं दिसाणं गीवाउण्णामणं पणमणं च । णिट्ठीवणंगमरिसो काउसग्गदि वज्जिज्जो ।।१६९।। गाथार्थ-शिरःप्रकम्पित, मूकत्व, अंगुलि, भूविकार और वारुणीपायीये दोष इस प्रकार हैं ॥१६८॥. आचारवृत्ति-१४. शिरःप्रकम्पित-कायोत्सर्ग में स्थित हुए जो शिर को कंपाते है उनके 'शिर:प्रकम्पित' दोष होता है । १५. मूकत्व-कायोत्सर्ग में स्थित होकर जो मूक के समान मुखविकार । व नाक सिकोड़ना करते हैं उनके 'मूकत्व' दोष होता है ।। ... १६. अंगुलि–जो कायोत्सर्ग से स्थित होकर अंगुलियों से गणना करते हैं उनके अंगुलि दोष होता है । १७. भूविकार-जो कायोत्सर्ग से खड़े हुए भौहों को चलाते हैं या पैरों की अंगुलियाँ नचाते हैं उनके 'भ्रूविकार' दोष होता है। १८. वारुणीपायी-मदिरापायी के समान झूमते हुए जो कायोत्सर्ग करते हैं उनके वारुणीपायी दोष होता है ॥१६८॥ गाथार्थ–दश दिशाओं का अवलोकन, ग्रीवोन्नमन, प्रणमन, निष्ठीवन और अंगामर्श कायोत्सर्ग में दोष ॥१६९॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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