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आवश्यकनियुक्तिः
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तथासीसपकंपिय मुइयंह अंगुलि भूविकार वारुणीपेयी । काओसग्गेण ठिदो एदे दोसे परिहरेज्जो ।।१६८।।
शिर:प्रकंपितं मूकत्वं अंगुलिभ्रूविकार: वारुणीपायी ।
कायोत्सर्गेण स्थितः एतान् दोषान् परिहरेत् ।।१६८॥ शिरःप्रकंपितं कायोत्सर्गेण स्थितो य: शिरः प्रकंपयति चालयति तस्य शिरःप्रकंपितदोषः, मुइयं मूकत्वं मूक इव य: कायोत्सर्गेण स्थितो मुखविकारं नासिकाविकारं च करोति तस्य मूकितदोषः, तथा य: कायोत्सर्गेण स्थितोऽगुलिगणनां करोति तस्यांगुलिदोषः, तथा भूविकार भूविकारः कायोत्सर्गेण स्थितो यो भूविक्षेपं करोति तस्य भूविकारदोषः पादांगुलिनर्तनं वा, तथा यो वारुणीपायीवसुरापायीवेति घूर्णमान: कायोत्सर्ग करोति तस्य वारुणीपायीदोषः, तस्मादेतान् दोषान् कायोत्सर्गेण स्थित: सन् परिहरेद्वर्जयेदिति ॥१६८॥
तथेमांश्च दोषान् परहरेदित्याह
आलोगणं दिसाणं गीवाउण्णामणं पणमणं च । णिट्ठीवणंगमरिसो काउसग्गदि वज्जिज्जो ।।१६९।।
गाथार्थ-शिरःप्रकम्पित, मूकत्व, अंगुलि, भूविकार और वारुणीपायीये दोष इस प्रकार हैं ॥१६८॥.
आचारवृत्ति-१४. शिरःप्रकम्पित-कायोत्सर्ग में स्थित हुए जो शिर को कंपाते है उनके 'शिर:प्रकम्पित' दोष होता है ।
१५. मूकत्व-कायोत्सर्ग में स्थित होकर जो मूक के समान मुखविकार । व नाक सिकोड़ना करते हैं उनके 'मूकत्व' दोष होता है ।। ... १६. अंगुलि–जो कायोत्सर्ग से स्थित होकर अंगुलियों से गणना करते हैं उनके अंगुलि दोष होता है ।
१७. भूविकार-जो कायोत्सर्ग से खड़े हुए भौहों को चलाते हैं या पैरों की अंगुलियाँ नचाते हैं उनके 'भ्रूविकार' दोष होता है।
१८. वारुणीपायी-मदिरापायी के समान झूमते हुए जो कायोत्सर्ग करते हैं उनके वारुणीपायी दोष होता है ॥१६८॥
गाथार्थ–दश दिशाओं का अवलोकन, ग्रीवोन्नमन, प्रणमन, निष्ठीवन और अंगामर्श कायोत्सर्ग में दोष ॥१६९॥
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