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आवश्यक नियुक्तिः
निःकूटं मायाप्रपंचान्निर्गतं, सह विशेषेण वर्त्तत इति सविशेषस्तं सविशेषं विशेषतासमन्वितं बलानुरूपं स्वशक्त्यनुरूपं, वयोऽनुरूपं च, बाल्ययौवनयार्द्धक्यानुरूपं तथा वीर्यानुरूपं कालानुरूपं च कायोत्सर्गं धीरा दुःखक्षयार्थं कुर्वन्ति तिष्ठन्तीति ॥ १७० ॥
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मायां प्रदर्शयन्नाह—
जो पुण तीसदिवरिसो सत्तरिवरिसेण पारणाय समो । विसमो य कूडवादी णिव्विण्णाणी य सो य जडो ।। १७१ ।। यः पुनः त्रिंशद्वर्षः सप्ततिवर्षेण पारणेन समः ।
विषमश्च कूटवादी निर्विज्ञानी च स च जडः ॥ १७१ ॥
यः पुनस्त्रिंशद्वर्षप्रमाणो यौवनस्थः शक्तः सप्ततिसंवत्सरेण सप्ततिसंवत्सरायुःप्रमाणेन वृद्धेन नि:शक्तिकेन पारणेनानुष्ठानेन कायोत्सर्गादिसमाप्त्या समः सदृशशक्तिको निःशक्तिकेन सह य: स्पर्द्धां करोति सः साधुर्विषमश्च शान्तरुपो न भवति कूटवादी मायाप्रपंचतत्परो निर्विज्ञानी विज्ञानरहितश्चारित्रमुक्तश्च जडश्च मूर्खो, न तस्येहलोको नाऽपि परलोक इति ॥ १७१ ॥
आचारवृत्ति—धीर मुनि दुःखों का क्षय करने के लिए माया प्रपंच से रहित, विशेषताओं से सहित, अपनी शक्ति के अनुरूप और अपनी बाल, युवा या वृद्धावस्था के अनुरूप तथा अपने वीर्य के अनुरूप एवं काल के अनुरूप कायोत्सर्ग को करते हैं ॥ १७० ॥
कायोत्सर्ग में माया कैसे ? यह दिखलाते हैं
गाथार्थ - जो साधु तीस वर्ष की वय वाला है पुन: सत्तर वर्ष वाले के कायोत्सर्ग से समानता करता है वह विषम ( अशान्त), कूटवादी, अज्ञानी और मूढ़ हैं ॥१७१॥
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आचारवृत्ति - जो मुनि तीस वर्ष की उम्र वाला है - युवावस्था में स्थित है, शक्तिमान है, फिर भी यदि वह सत्तर वर्ष वाले वृद्ध ऐसे अशक्त मुनि के कायोत्सर्ग आदि की समाप्ति रूप अनुष्ठान के साथ बराबरी करता है, अर्थात् आप शक्तिमान होते हुए भी अशक्त मुनि के साथ स्पर्द्धा करता है, वह साधु विषम-शान्तरूप नहीं है । जो साधु माया प्रपंच में तत्पर है, निर्विज्ञानी (विज्ञान रहित) और चारित्र रहित तथा मूर्ख है, उसका न इहलोक ही सुधरता है और न परलोक ही सुधरता है ॥१७१॥
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