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________________ आवश्यक नियुक्तिः कायोत्सर्गे स्थितः चिंतयन् ईर्यापथस्य अतीचारं । तं सर्वं समानीय धर्मं शुक्लं च चिंतयतु ॥ १६३ ॥ कायोत्सर्गे स्थितः सन् ईर्यापथस्यातीचारं विनाशं चिन्तयन् तं नियमं सर्वं निरवशेषं समाप्य समाप्तिं नीत्वा पश्चाद्धर्मध्यानं शुक्लध्यानं च चिन्तयत्विति ॥ १६३ ॥ तथा तह दिवसयरादियपक्खियचादुम्मासियवरिसचरिमेसु । तं सव्वं समाणित्ता धम्मं सुक्कं च झायेज्जो ।। १६४ ।। तथा दैवसिकरात्रिकपाक्षिकचतुर्मासवर्षचरमान् । तं सर्वं समाप्य धर्मं शुक्लं च ध्यायेत् ॥१६४॥ १३१ एवं तथा ईर्यापथातीचारार्थं दैवसिकरात्रिकपाक्षिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकोत्तमार्थान् नियमान् तान्' समाप्य धर्मध्यानं शुक्लध्यानं ध्यायेत्, न तावन्मात्रेण तिष्ठेदित्यनेनालस्याद्यभावः कथितो भवतीति ॥१६४॥ आचारवृत्ति — कायोत्सर्ग में स्थित हुआ साधु ईर्यापथ के अतीचार के विनाश का चिन्तवन करते हुए उन सब नियमों को समाप्त करके धर्मध्यान और शुक्लध्यान का अवलंबन लेवें ॥१६३॥ पुन: तथा गाथार्थ — उसी प्रकार से दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक और उत्तमार्थ – इन सब नियमों को समाप्त करके धर्म और शुक्लध्यान का चिन्तवन करें ॥ १६४॥ १. ग० तान् सर्वान् । आचारवृत्ति — जैसे पूर्व की गाथा में ईर्यापथ के अतीचार के लिए बताया है वैसे ही दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक और औत्तमार्थ इन नियम प्रतिक्रमणों को समाप्त करके अर्थात् पूर्ण करके पुनः वह साधु धर्मध्यान और शुक्लध्यान को ध्यावे, उतने मात्र से ही संतोष नहीं कर लेवे, इस कथन से आलस्य आदि का अभाव कहा गया है ॥१६४॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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