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आवश्यकनियुक्तिः
तथाभत्ते पाणे गामंतरे य 'चदुमासियवरिसचरिमेसु । 'णाऊण ठंति धीरा घणिदं दुक्खक्खयट्ठाए ।।१६२।।'
भक्तं पानं ग्रामांतरं च चातुर्मासिकवार्षिकचरमान् ।
ज्ञात्वा तिष्ठति धीरा अत्यर्थं दुःखक्षयार्थम् ॥१६२॥ भक्तपानग्रामान्तर चातुर्मासिकसांवत्सरिकचरमोत्तमार्थविषयं ज्ञात्वा कायोत्सर्गे तिष्ठति दैवसिकादिषु च धीरा अत्यर्थं दुःखक्षयार्थं नान्येन कार्येणेति ॥१६॥
यदर्थं कायोत्सर्ग करोति तमेवार्थं चिन्तयतीत्याह- . काओसग्गसि ठिदो चिंतिदु इरियावधस्स अदिचारं । तं सव्वं समाणित्ता धम्म सुक्कं च चिंतेज्जो ।। १.६३।।
और भी हेतु बताते हुए कहते हैं
भोजन, पान, ग्रामान्तर गमन, चातुर्मासिक, वार्षिक और उत्तमार्थ इनको जानकर धीर मुनि अत्यर्थ रूप से दुःखक्षय के लिए कायोत्सर्ग करते हैं ॥१६१-१६२॥
आचारवृत्ति-आहार, विहार, चातुर्मासिक, वार्षिक और उत्तमार्थ इन विषयों को जानकर धैर्यवान् साधु अतिशय रूप से दु:खक्षय के लिए दैवसिक आदि प्रतिक्रमण क्रियाओं के कायोत्सर्ग में स्थित होते हैं । अन्य कोई प्रयोजन (लौकिक) के लिए नहीं ॥१६१-१६२॥
साधु जिस लिए कायोत्सर्ग करते हैं उसी अर्थ का चिन्तवन करते हैं, सो ही बताते हैं___गाथार्थ-कायोत्सर्ग में स्थित हुआ साधु ईर्यापथ के अतिचार के विनाश का चिन्तवन करता हुआ उन सबको समाप्त करके धर्मध्यान और शुक्लध्यान का चिन्तवन करें ॥१३॥
* फलटन प्रति की गाथा में इससे यह अन्तर है
एवं दिवसियराइयपक्खिय चादुम्मासियवरिसचरिमेसु ।
णादण ठंति धीरा घणिदं दुक्खक्खयट्ठाए ।। अर्थ-दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक और उत्तमार्थ-इन सम्बन्धी प्रतिक्रमणों के विषय को जानकर धीर साधु दुःखों का अत्यन्त क्षय करने के लिए कायोत्सर्ग धारण करते हैं. अन्य प्रयोजन के लिए नहीं।
१.
ग० चादु ।
२.
क० काऊण वंति वीरा सणिदं ।
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