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आवश्यकनियुक्तिः
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तथाउद्देसे णिद्देसे सज्झाए वंदणे य पणिधाणे । सत्तावीसुस्सासा काओसग्गझि कादव्वा ।।१६०।।
उद्देशे निर्देशे स्वाध्याये वंदनायां प्रणिधाने ।
सप्तविंशतिरुच्छ्वासा: कायोत्सर्गे कर्तव्याः ॥१६०॥ उद्देशे ग्रन्थादिप्रारम्भकाले निर्देशे प्रारब्धग्रन्थादिसमाप्तौ च कायोत्सर्गे सप्तविंशतिरुच्छ्वासा: कर्तव्याः । तथा स्वाध्याये स्वाध्यायविषये कायोत्सर्गास्तेषु च सप्तविंशतिरुच्छ्वासाः कर्त्तव्याः । तथा वन्दनायां ये कायोत्सर्गास्तेषु च प्रणिधाने च मनोविकारे चाशुभपरिमाणे तत्क्षणोत्पन्ने सप्तविंशतिरुच्छ्वासा: कायोत्सर्गे कर्तव्या इति ॥१६०॥
एवं प्रतिपादितक्रमं कायोत्सर्ग किमर्थमधितिष्ठन्तीत्याहकाओसग्गं इरियावहादिचारस्स मोक्खमग्गम्मि । वोसट्टचत्तदेहा करंति दुक्खक्खयट्ठाए ।।१६१।।
कायोत्सर्मं ईर्यापथातिचारस्य मोक्षमार्गे । . व्युत्सृष्टत्यक्तदेहा: कुर्वन्ति दु:खक्षयार्थं ॥१६१॥ ईर्यापथातीचारनिमित्तं कायोत्सर्ग मोक्षमार्गे स्थित्वा व्युत्सृष्टत्यक्तदेहाः सन्त: कुर्वन्ति दुःखक्षयार्थमिति ॥१६१।।
उसी तरह और भी बताते हैं
गाथार्थ-ग्रन्थ के प्रारम्भ में, समाप्ति में, स्वाध्याय में, वन्दना में और अशुभ परिणाम के होने पर कायोत्सर्ग करने में सत्ताईस उच्छ्वास करना चाहिए ॥१६०॥ __ आचारवृत्ति-उद्देश्य-ग्रन्थादि के प्रारम्भ करते समय, निर्देश-प्रारम्भ किए ग्रन्थादि की समाप्ति के समय सत्ताईस उच्छ्वासों के साथ कायोत्सर्ग करना चाहिए । स्वाध्याय के तथा वन्दना के कायोत्सर्गों में सत्ताईस उच्छ्वास करना चाहिए । इसी तरह प्रणिधान-मन के विकार के होने पर और अशुभ परिणाम के तत्क्षण उत्पन्न होने पर सत्ताईस उच्छ्वास पूर्वक कायोत्सर्ग करना चाहिए ॥१६०॥
इस प्रतिपादित क्रम से कायोत्सर्ग किसलिए करते हैं ? सो कहते हैं
गाथार्थ-मोक्षमार्ग में स्थित होकर ईर्यापथ के अतीचार, शोधन हेतु शरीर से ममत्त्व छोड़कर साधु दुःखों के क्षय के लिए कायोत्सर्ग करते हैं ॥१६१।।
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