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आवश्यकनियुक्तिः
कायोत्सर्गस्य दृष्टं फलमाहकाओसग्गशि कदे जह भिज्जदि अंगुवंगसंधीओ । तह भिज्जदि कम्मरयं काउस्सग्गस्स करणेण ।।१६५।।
कायोत्सर्गे कृते यथा भियंते अंगोपांगसंधयः । .
तथा भिद्यते कर्मरजः. कायोत्सर्गस्य करणेन ॥१६५॥ ... कायोत्सर्गे हि स्फुटं कृते यथा भिद्यन्तें गोपांगसंधयः शरीरावयवास्तथा भिद्यते कर्मरजः .कायोत्सर्गकरणेनेति ॥१६५।।
द्रव्यादिचतुष्टयापेक्षमाहबलवीरियमासेज्ज य खेत्ते काले सरीरसंहडणं । . . काओसग्गं कुज्जा इमे दु दोसे परिहरंतो ।।१६६।।
बलवीर्यमासाद्य च क्षेत्रं कालं शरीरसंहननं ।
कायोत्सर्गं कुर्यात् इमांस्तु दोषान् परिहरन् ॥१६६।। बलं वीर्यं चौषधाद्याहारशक्तिं वीर्यान्तरायक्षयोपशमं वाऽऽश्रित्य क्षेत्रबलं कालबलं चाश्रित्य शरीरं व्याध्याद्यनमुपहतसंहननवज्रर्षभनाराचादिकमपेक्ष्य कायोत्सर्ग कुर्यात्, इमांस्तु कथ्यमानान् दोषान्परिहरन्निति ॥१६६॥
कायोत्सर्ग के प्रत्यक्ष फल को कहते हैं
गाथार्थ-कायोत्सर्ग करने पर जैसे अंग-उपांगों की संधियाँ मिट जाती हैं वैसे ही कायोत्सर्ग के करने से कर्मरज अलग हो जाता है ॥१६५॥
आचारवृत्ति-कायोत्सर्ग में हलन-चलन रहित शरीर के स्थिर होने से जैसे शरीर के अवयव भिद जाते हैं, वैसे ही कायोत्सर्ग के द्वारा कर्मधूलि भी आत्मा से पृथक् हो जाती है ॥१६५॥ :
गाथार्थ-बल, वीर्य, क्षेत्र, काल और शरीर के संहनन का आश्रय लेकर इन दोषों का परिहार करते हुए साधु कायोत्सर्ग करे ॥१६६॥
आचारवृत्ति-औषधि और आहार आदि से हुई शक्ति को बल कहते हैं तथा वीर्यान्तराय की क्षयोपशम की शक्ति को वीर्य कहते हैं । इन बल और वीर्य को देखकर तथा क्षेत्रबल और कालबल का भी आश्रय लेकर व्याधि से रहित शरीर एवं वज्रवृषभनाराच आदि संहनन की भी अपेक्षा करके साधु कायोत्सर्ग करें । तथा आगे कहे जाने वाले दोषों का परिहार करते हए कायोत्सर्ग धारण करें । अर्थात् अपनी शरीर-शक्ति, क्षेत्र, काल आदि को देखकर उनके अनुरूप कायोत्सर्ग करें । अधिक शक्ति होने से अधिक समय तक कायोत्सर्ग में स्थिति रह सकती है । अत: अपनी शक्ति को न छिपाकर कायोत्सर्ग करें ॥१६६॥
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