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आवश्यक नियुक्तिः
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मध्यकाले निर्देशे समाप्तौ सागारं गार्हस्थ्यं संयतासंयतयोग्यमथवा सागारं सविकल्पं भेदसहितं अनागारं संयमसमेतोद्भवं यतिप्रतिबद्धमथवाऽनाकारं निर्विकल्पं सर्वथा परित्यागमनुपालयन् रक्षयन् दृढधृतिकः सदृढधैर्यः ।
मूलमध्यनिर्देशे साकारमनाकारं च प्रत्याख्यानमुपयुक्तः सन् आज्ञया सम्यग्विवेकेन वाऽनुपालयन् दृढधृतिको यो भवति स एष प्रत्याख्यायको नामेति सम्बन्धः । उत्तरेणाथवा मूलमध्यनिर्देश आज्ञयोपयुक्तः साकारमनाकारं च प्रत्याख्यानं च गुरुं ज्ञापयन् प्रतिपादयन् अनुपालयंश्च दृढधृतिकः प्रत्याख्यायको भवेदिति ॥१३३॥
शेषं प्रतिपादयन्नाह —
एसो पच्चक्खाओ पच्चक्खाणिति वुच्चदे चाओ । पच्चक्खिदव्वमुवहिं आहारो चेव बोधव्वो ।। १३४ ।।
एष प्रत्याख्यायकः प्रत्याख्यानमिति उच्यते त्यागः । प्रत्याख्यातव्यमुपधिराहारश्चैव बोद्धव्यः ।।१३४।।
के उपदेश आदि रूप आज्ञा से और गुरु के कथन से पाप रूप अन्धकार के हेतुक दोष के स्वरूप को परमार्थ से जानकर और उसके बाह्य आभ्यन्तर कारणों में प्रवेश करके जो मुनि नाम, स्थापना आदि छह भेद रूप प्रत्याख्यानों से समन्वित हैं, वह साधु प्रत्याख्यान के मूल-ग्रहण के समय, उसके मध्यकाल में और निर्देश - उसकी समाप्ति में सागार - संयतासंयत गृहस्थ के योग्य और अनगार-संयमयुक्त यति से सम्बन्धित अथवा साकार - सविकल्प भेद सहित और अनाकार-निर्विकल्प अर्थात् सर्वथा परित्याग रूप प्रत्याख्यान की रक्षा करता हुआ दृढ़ धैर्यसहित होने से प्रत्याख्यायक है ।
अर्थात् जो साधु त्याग के आदि, मध्य और अन्त में साकार व अनाकार प्रत्याख्यान में उद्यमशील होता हुआ गुरुओं की आज्ञा या सम्यक् विवेक से उसका पालन करता हुआ दृढधैर्यवान् है वह प्रत्याख्यायक कहलाता है - ऐसा अगली गाथा से सम्बन्ध कर लेना चाहिए । अथवा मूल, मध्य और अन्त में प्रत्याख्यान का पालन करने वाला, गुरु की आज्ञा को धारण करने वाला साधु भेद सहित और भेद रहित प्रत्याख्यान को गुरु को बतलाकर उसको पालता हुआ, धैर्यगुणयुक्त है - वह प्रत्याख्यायक है ॥१३३॥
गाथार्थ — पूर्वोक्त, गाथा कथित साधु प्रत्याख्यायक है । त्याग को प्रत्याख्यान कहते हैं और उपधि तथा आहार - यह प्रत्याख्यान करने योग्य पदार्थ हैं—ऐसा जानना ॥ १३४ ॥
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