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________________ आवश्यकनियुक्तिः १०३ ईर्यागोचरस्वप्नादिभवं सर्वमतीचारमाचरतु मा वाऽऽचरतु पूर्व ऋषभनाथशिष्याश्चरमा वर्द्धमानशिष्याः सर्वे सर्वानियमान् प्रतिक्रमणदण्डकान् प्रतिक्रमन्त उच्चारयन्ति ॥१२७॥ किमित्याद्याः पश्चिमाश्च सर्वानियमा दुच्चारयंति किमित्यजितादिपार्श्वनाथपर्यन्तशिष्योनोच्चारयन्ति इत्याशंकायामाह मज्झिमया दिढबुद्धी एयग्गमणा अमोहलक्खा य । तह्मा हु जमाचरंति तं गरहंता वि सुज्झंति ।।१२८।। मध्यमा दृढबुद्धय एकाग्रमनस: अमोहलक्षाश्च । तस्मात् हि यमाचरंति तं गहँतोपि शुध्यति ॥१२८॥ यस्मान्मध्यमतीर्थंकरशिष्या दृढबुद्धयोऽविस्मरणशीला एकाग्रमनसः स्थिरचित्ता अमोहलक्षा अमूढमनसः प्रेक्षापूर्वकारिणः तस्मात्स्फुटं यं दोषं आचरंति तस्माद्दोषाद् गर्हन्तोऽप्यात्मानं जुगुप्समानाः शुद्ध्यन्ते शुद्धचारित्रा भवन्तीति ॥१२८॥ - आचारवृत्ति-ईर्यापथ, गोचरी, स्वप्न आदि में अतीचार होवें या न होंवे, किन्तु ऋषभनाथ के शिष्य और वर्धमान भगवान् के सभी शिष्य नियम से सभी प्रतिक्रमण दंडकों का उच्चारण करते हैं ॥१२७॥ शंका-आदि और अन्तिम तीर्थंकर के शिष्य किसलिए सर्व प्रतिक्रमण दण्डकों का उच्चारण करते हैं ? और अजितनाथ से लेकर पार्श्वनाथ पर्यंत के शिष्य क्यों नहीं सभी का उच्चारण करते हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं____गाथार्थ-मध्य तीर्थंकरों के शिष्य दृढ़ बुद्धि वाले, एकाग्र मन सहित और मूढ़ मन रहित होते हैं । इसलिए जिस दोष का आचरण करते हैं उसकी गर्दा करके ही शुद्ध हो जाते हैं ॥१२८॥ आचारवृत्ति-मध्यम बाईस तीर्थंकरों के शिष्य दृढ़ बुद्धि वाले होते थे अर्थात् वे विस्मरण स्वभाव वाले नहीं थे, उनकी स्मरण शक्ति विशेष थी, उनका चित्त स्थिर रहता था और वे विवेक पूर्वक कार्य करते थे । इसलिए जो दोष उनसे होता था उस दोष से अपनी आत्मा की गर्दा करते हुए शुद्ध चारित्र वाले हो जाते थे ॥१२८॥ १. गनु । २. ग. शुद्धयन्ति । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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