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________________ १०४ आवश्यक नियुक्तिः पुरिमचरिमादु जह्मा चलचित्ता चेव मोहलक्खा य । तो सव्वपडिक्कमणं अंधलयघोडय दिट्ठतो ।। १२९ ।। पूर्वचरमास्तु यस्मात् चलचित्ताश्चैव मोहलक्षाश्च । तस्मात् सर्वप्रतिक्रमणं अंधलकघोटकः दृष्टांतः ॥ १२९॥ पूर्वचरमतीर्थंकरशिष्यास्तु यस्माच्चलचित्ताश्चैव दृढ़मनसो नैव, मोहलक्षाच मूढमनसो बहून् वारान् प्रतिपादितमपि शास्त्रं न जानंति ऋजुजडा वक्रजडाश्च यस्मात्तस्मात्सर्वप्रतिक्रमणं दण्डकोच्चारणं । तेषामन्धलकघोटकदृष्टान्तः । कस्यचिद्राज्ञोऽश्वोऽन्धस्तेन च वैद्यपुत्रं प्रति अश्वायौषधं पृष्टं स च वैद्यकं न जानाति, वैद्यश्च ग्रामं गतस्तेन च वैद्यपुत्रेणाश्वाक्षिनिमित्तानि सर्वाण्यौषधानि प्रयुक्तानि तैः सोऽश्वः स्वस्थीभूतः एवं साधुरपि यदि एकस्मिन्प्रतिक्रमणदण्डके स्थिरमना न भवति अन्यस्मिन् भविष्यति । अन्यस्मिन् वा न भवत्यन्यस्मिन् गाथार्थ - पूर्व और चरम के अर्थात् आद्यन्त तीर्थंकर के शिष्य तो जिस हेतु से चल चित्त और मूढ़ मन वाले होते हैं इसलिए उनके सर्वप्रतिक्रमण है, इसमें अंधलक द्योतक उदाहरण समझना ॥ १२९॥ आचारवृत्ति - प्रथम और चरम तीर्थंकर के शिष्य जिस कारण से चंचल चित्त होते हैं अर्थात् उनका मन स्थिर नहीं रहता है । तथा मूढ़ चित्त वाले हैंउनको बहुत बार शास्त्रों को प्रतिपादन करने पर भी वे नहीं समझते हैं । वे ऋजुजड़ और वक्रजड़ स्वभावी होते हैं । अर्थात् प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के शासन के शिष्यों में अति सरलता और अति जड़ता रहती थी और अन्तिम तीर्थंकर के शिष्यों में कुटिलता और जड़ता रहती है, अतः ये ऋजुजड़ और वक्रजड़ कहलाते हैं । इसी कारण से इन्हें सर्वदण्डकों के उच्चारण का विधान है । इनके लिए अन्यलक घोटक दृष्टान्त दिया गया है । के यथा - किसी राजा का घोड़ा अन्धा हो गया, उसने उस घोड़े के लिए वैद्य पुत्र से औषधि पूछी । वह वैद्यक शास्त्र नहीं जानता था और उसका पिता वैद्य अन्य ग्राम को चला गया था । तब उस वैद्यपुत्र ने घोड़े की आँख के निमित्त सभी औषधियों का प्रयोग कर दिया अर्थात् सभी औषध उस घोड़े की आँख में लगाया गया । उन औषधियों के प्रयोग से वह घोड़ा स्वस्थ हो गया अर्थात् जो आँख खुलने की औषधि थी, उसी में वह भी आ गयी । उसके लगते ही घोड़े की आँख खुल गयी । वैसे ही साधु भी यदि एक प्रतिक्रमण दण्डक में स्थिरचित्त नहीं होता तो अन्य दण्डक में हो जावेगा; अथवा यदि अन्य दण्डक में भी स्थिरमना नहीं 1 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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