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________________ .. १०२ आवश्यकनियुक्तिः तयोस्तीर्थंकरयोधर्मः प्रतिक्रमणसमन्वित: अपराधो भवतु मा वा, पुनर्जिनवराणामजितादिपार्श्वनाथपर्यन्तानामपराधे सति प्रतिक्रमणं तेषां यतोऽपराधबाहुल्याभावादिति ॥१२५॥ जावेदु अप्पणो वा अण्णदरे वा भवे अदीचारो। तावेदु पडिक्कमणं मच्छिमयाणं जिणवराणं ।।१२६।। यस्मिन् आत्मनो वा अन्यतरस्य वा भवेदतीचारः । तस्मिन् प्रतिक्रमणं मध्यमानां जिनवराणां ॥१२६॥ यस्मिन् व्रत आत्मनोऽन्यस्य वा भवेदतीचारस्तस्मिन् विषये भवेत्प्रतिक्रमणं मध्यमजिनवराणामाद्यपश्चिमयोः पुनस्तीर्थंकरयोरेकस्मिन्नपराधे सर्वान् प्रतिक्रमणदण्डकान् भणति ॥१२६॥ इत्याहइरिया गोयरसुमिणादिसव्वमाचरदु मा व आचरदु । पुरिम चरिमादु सव्वे सव्वं णियमा पडिक्कमंदि ।।१२७।। ईर्यागोचरस्वप्नादिसर्वं आचरतु मा वा आचरतु । पूर्वे चरमे तु सर्वे सर्वान् नियमान् प्रतिक्रमते ॥१२७॥ दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ से लेकर तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ पर्यन्त मध्य के बाईस तीर्थंकरों का धर्म, अपराध के होने पर ही प्रतिक्रमण करने रूप है, क्योंकि उनके शिष्यों में अपराध की बहुलता का अभाव है ॥१२५॥ गाथार्थ-जिस व्रत में अपने को या अन्य किसी को अतिचार होवे, मध्यम जिनवरों के काल में उसका ही प्रतिक्रमण करना होता है ॥१२६॥ आचारवृत्ति-जिस व्रत में अपने को या अन्य किसी साधु को अतीचार लगता है उसी विषय में प्रतिक्रमण होता है-ऐसा मध्यम के बाईस तीर्थंकरों के शासन का नियम था । किन्तु प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी के शासन काल में पुन: एक अपराध के होने पर प्रतिक्रमण के सभी दण्डकों को बोलना होता है ॥१२६॥ इसी बात को कहते हैं__ गाथार्थ-ईर्यापथ सम्बन्धी, आहार सम्बन्धी, स्वप्न आदि सम्बन्धी सभी दोष करें या न करें किन्तु पूर्व और चरम अर्थात् आद्यन्त (प्रथम और अन्तिम) तीर्थंकरों के काल में सभी साधु सभी दोषों का नियम से प्रतिक्रमण करते हैं ॥१२७॥ १. अ. ब. ग. इरियं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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