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________________ भावप्रतिक्रमणमाह भावेण संपजुत्तो जदत्थजोगो य जंपदे सुत्तं । सो कम्मणिज्जराए विउलाए वट्टदे साधू ।। १२४ ।। आवश्यक नियुक्तिः भावेन संप्रयुक्तः यदर्थयोगश्च जल्पति सूत्रं । स कर्मनिर्जरायां विपुलायां वर्तते साधुः ॥ १२४॥ भावेन संप्रयुक्तो यदर्थं योगश्च यन्निमित्तं शुभानुष्ठानं यस्मै अर्थायाभ्युद्यतो जल्पति सूत्रं प्रतिक्रमणपदान्युच्चरति शृणोति वा स साधुः कर्मनिर्जरायां विपुलायां प्रवर्त्तते सर्वापराधान् परिहरतीत्यर्थः ॥१२४॥ सक्किमणो धम्मो पुरिंमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । अवराहे' पडिकमणं मज्झिमयाणं जिणवराणं ।। १२५ ।। १०१ सप्रतिक्रमणो धर्मः पूर्वस्य च पश्चिमस्य च जिनस्य । अपराधे प्रतिक्रमणं मध्यमानां जिनवराणां ॥१२५॥ सह प्रतिक्रमणेन वर्तत इति सप्रतिक्रमणो धर्मो दोषपरिहारेण चारित्रं पूर्वस्य प्राक्तनस्य वृषभतीर्थंकरस्य पश्चिमस्य पाश्चात्यस्य सन्मतिस्वामिनो जिनस्य भाव प्रतिक्रमण को कहते हैं गाथार्थ - भाव से युक्त होता हुआ जिस प्रयोजन के लिए सूत्र को पढ़ता है वह साधु उस विपुल कर्म - निर्जरा में प्रवृत्त होता है ॥ १२४ ॥ आचारवृत्ति — जो साधु भाव से संयुक्त हुआ जिस अर्थ के लिए उद्यत हुआ प्रतिक्रमण पदों का उच्चारण करता है अथवा सुनता है वह बहुत से कर्मों की निर्जरा कर लेता है अर्थात् सभी अपराधों का परिहार कर देता है ॥ १२४॥ प्रतिक्रमण करने का उद्देश क्या है ? इसे बताते हैं गाथार्थ - प्रथम और अन्तिम जिनवरों का धर्म प्रतिक्रमण सहित है तथा मध्यम जिनवरों का अपराध होने पर प्रतिक्रमण करना धर्म है ॥१२५॥ अ. ब. अवराधे । आचारवृत्ति - प्रतिक्रमण सहित धर्म अर्थात् दोष परिहार पूर्वक चारित्र । प्रथम जिन वृषभ तीर्थंकर और अन्तिम जिन सन्मति अर्थात् महावीर स्वामीइन दोनों तीर्थंकरों का धर्म प्रतिक्रमण सहित है । अपराध हों अथवा न हों किन्तु इनके तीर्थ में शिष्यों को प्रतिक्रमण करना ही चाहिए । किन्तु मध्यम अर्थात् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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