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________________ आवश्यकनियुक्तिः चतुर्मासमध्ये संवत्सरमध्ये नामादिभेदेन षड्विधस्यातीचारस्य बहुभेदभिन्नस्य वा, कृतकारितानुमतस्य मनोवचनकायैः निरसनं, उत्तमार्थे भवमौत्तमार्थं यावज्जीवं चतुर्विधाहारस्य परित्यागः सर्वातिचारप्रतिक्रमणस्यात्रान्तर्भावो द्रष्टव्यः, 'एवं प्रतिक्रमणसप्तकं द्रष्टव्यम् ॥११२॥ पुनरप्यन्येन प्रकारेण भेदं प्रतिपादयन्नाहपडिकमओ पडिकमणं पडिकमिदव्वं च होदि णादव्वं । एदेसिं पत्तेयं परूवणा होदि 'तिण्हपि ।।११३।। प्रतिक्रामक: प्रतिक्रमणं प्रतिक्रमितव्यं च भवति ज्ञातव्यं । एतेषां प्रत्येकं प्ररूपणा भवति त्रयाणामपि ॥११३।। प्रतिक्रामति कृतदोषाद्विरमतीति प्रतिक्रामकः, अथवा दोषनिर्हरणे प्रवर्तते अविघ्नेन प्रतिक्रमत इति प्रतिक्रामकः, पञ्चमहाव्रतादिश्रवणधारणदोषनिर्हरण ७. टत्तमार्थ-उत्तम-अर्थ-प्रयोजन (सल्लेखना) से सम्बन्धित प्रतिक्रमण उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है । इसमें यावज्जीवन चार प्रकार के आहार का त्याग किया जाता है अर्थात् मरणान्त समय जो सल्लेखना ली जाती है उसी में चार प्रकार के आहार का त्याग करके दीक्षित जीवन के सर्वदोषों का प्रतिक्रमण किया जाता है । सर्वातिचार प्रतिक्रमण का इसी में अन्तर्भाव हो जाता है । इस तरह प्रतिक्रमण के सात भेदं जानना चाहिए ॥११२॥ .. पुनरपि अन्य प्रकार से भेदपूर्वक प्रतिक्रमण कहते हैं गाथार्थ-प्रतिक्रामक, प्रतिक्रमण और प्रतिक्रमण (त्याग) करने योग्य वस्तु को जानना चाहिए । इन तीनों में प्रत्येक की भी अलग-अलग प्ररूपणा करते हैं ॥११३॥ आचारवृत्ति-जो प्रतिक्रमण करता है अर्थात् किए हुए दोषों से विरत होता है-उनसे अपने को हटाता है वह प्रतिक्रामक है । अथवा जो दोषों को दूर करने में प्रवृत्त होता है, निर्विघ्नरूप से प्रतिक्रमण करता है वह प्रतिक्रामक है, वह साधु पाँच महाव्रत आदि को श्रवण करने, उनको धारण करने और उनके दोषों १. .क एवं सप्त प्रकारं प्रतिक्रमणं द्रष्टव्यम् । २. क ०होदि कादव्वा । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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