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आवश्यकनियुक्तिः
तत्परः,प्रतिक्रमणं पञ्चमहाव्रताद्यतीचारविरतिव्रतशद्धिनिमित्ताक्षरमाला वा, प्रतिक्रमितव्यं द्रव्यं च परित्याज्यं मिथ्यात्वाद्यतीचाररूपं भवति ज्ञातव्यं, एतेषां त्रयाणां प्रत्येकमेकमेकं प्रति प्ररूपणाप्रतिपादनं भवति ॥११३॥
तथैव प्रतिपादयन्नाहजीवो दु पडिक्कमओ दव्वे खेत्ते य काल भावे य । पडिगच्छदि जेण 'जह्मि तं तस्स भवे पडिक्कमणं ।।११४।।
जीवस्तु प्रतिक्रामकः द्रव्ये क्षेत्रे च काल-भावे च ।
प्रतिगच्छति येन यस्मिन् तत्तस्य भवेत् प्रतिक्रमणं ॥११४॥ जीवस्तु प्रतिक्रामक: दोषद्वारागतकर्मविक्षपणशीलो जीवश्चेतनालक्षणः । क प्रतिक्रामक: ? द्रव्यक्षेत्रकालभावविषये, द्रव्यमाहारपुस्तकभेषजोपकरणादिकं, क्षेत्रं शयनासनस्थानचंक्रमणादिविषयो भूभागोंऽगुलवितस्तिहस्तधनुः क्रोशयोजनादिप्रमितः, कालः घटिकामुहूर्तसमयलवदिवसरात्रिपक्षमासर्वयनसंवत्सरसंध्यापर्वादिः, . भाव: परिणामरागद्वेषादिमदादिलक्षणः ।
को दूर करने में तत्पर रहता है, वह प्रतिक्रामक है । पाँच महाव्रत आदि में हुए अतीचारों से विरति अथवा व्रतशुद्धि निमित्त अक्षरों का समूह (अक्षरमाला) . अर्थात् प्रतिक्रमण-पाठ, प्रतिक्रमण है । मिथ्यात्व, असंयम आदि अतीचाररूप द्रव्य त्याग करने योग्य हैं इन्हें ही प्रतिक्रमितव्य कहते हैं । आगे इन तीनों का पृथक्-पृथक् निरूपण करते हैं ॥११३॥
उन्हीं तीनों का प्रतिपादन करते हैं__ गाथार्थ-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में जीव प्रतिक्रामक होता है । जिसके द्वारा, जिसमें वापस आता है उसका प्रतिक्रमण है ॥११४॥
आचारवृत्ति-जीव चेतना लक्षण वाला है । जो दोषों द्वारा आए हुए कर्म को दूर करने के स्वभाव वाला है वह प्रतिक्रामक है।
किस विषय में प्रतिक्रमण करने वाला होता है ? द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के विषय में प्रतिक्रमण करने वाला है । आहार, पुस्तक, औषध और उपकरण आदि द्रव्य हैं । सोने, बैठने, खड़े होने, गमन करने आदि विषयक भूमिप्रदेश क्षेत्र है । जो कि अंगुल, वितस्ति, हाथ, कोश, योजन आदि से परिमित होता है । घड़ी, मुहूर्त, समय, लव, दिवस, रात्रि, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, संध्या और पर्वादि दिवस-ये सब काल हैं । राग, द्वेष, मद आदि लक्षण परिणाम भाव हैं ।
१. क जाहिं । Jain Education International
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