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आवश्यकनियुक्तिः
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सावद्यद्रव्यसेवाया: परिणामस्य निवर्त्तनं द्रव्यप्रतिक्रमणम् । क्षेत्राश्रितातिचारान्निवर्तनं क्षेत्रप्रतिक्रमणं, कालमाश्रितातीचारान्निवृत्तिः कालप्रतिक्रमणं, रागद्वेषाद्याश्रितातीचारान्निवर्तनं भावप्रतिक्रमणमेष नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावाश्रितातीचारनिवृत्तिविषयः प्रतिक्रमणे निक्षेपः षड्विधो ज्ञातव्य इति । .
.. अथवा नाम प्रतिक्रमणं नाममात्रं, प्रतिक्रमणपरिणतस्य प्रतिविंबस्थापना स्थापनाप्रतिक्रमणं, प्रतिक्रमणप्राभृतज्ञोप्यनुपयुक्त' आगमद्रव्यप्रतिक्रमणं, तच्छरीरादिकं नोआगमद्रव्यप्रतिक्रमणमित्येवमादि पूर्ववद् द्रष्टव्यमिति ॥१११॥
प्रतिक्रमणभेदं प्रतिपादयन्नाहपडिकमणं देवसियं रादिय इरियापधं च बोधव्वं । पक्खियं चादुम्मासिय संवच्छरमुत्तमटुं च ।।११२।।
प्रतिक्रमणं दैवसिकं रात्रिकं ऐर्यापथिकं च बोद्धव्यं । पाक्षिकं चातुर्मासिकं सांवत्सरमुत्तमार्थम् ॥११२॥
सराग स्थापना से (सराग मूर्तियों से या अन्य आकारों से) परिणाम का हटाना स्थापना प्रतिक्रमण है । सावद्य-पाप कारक द्रव्यों के सेवन से परिणाम को निवृत्त करना द्रव्य प्रतिक्रमण है । क्षेत्र के आश्रित हुए अतिचारों से दूर होना क्षेत्र प्रतिक्रमण है । काल के आश्रय से हुए अतिचारों से दूर होना काल प्रतिक्रमण है । राग-द्वेष आदि भावों के आश्रय से निवृत्त होना भाव प्रतिक्रमण है । इस तरह. प्रतिक्रमण में छह प्रकार का निक्षेप जानना चाहिए। __अथवा नाममात्र को नाम-प्रतिक्रमण कहते हैं । प्रतिक्रमण में परिणत हुए के प्रतिबिम्ब की स्थापना करना स्थापना-प्रतिक्रमण है । प्रतिक्रमण शास्त्र का जानने वाला तो है किन्तु उसमें उपयुक्त नहीं है तो वह आगम-द्रव्य-प्रतिक्रमण है, उसके शरीर आदि नो-आगम द्रव्य प्रतिक्रमण हैं । इत्यादि रूप से अन्य और भेद पूर्ववत् समझने चाहिए ॥१११॥ ... प्रतिक्रमण के भेद कहते हैं... गाथार्थ-दैवसिक, रात्रिक, ऐपिथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और उत्तमार्थ-इन सात भेद रूप प्रतिक्रमण जानना चाहिए ॥११२॥
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ग. प्राभृतज्ञोऽनुपयुक्त ।
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