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आवश्यकनियुक्तिः
भेदेन त्रिविधं, अथवा प्रतिक्रमणस्वाध्यायवन्दनाभेदेन त्रिविधं, अथवा पंचनमस्कारध्यानचतुर्विंशतिस्तवभेदेन त्रिविधमिति ।
त्रिकरणशुद्धं मनोवचनकायाशुभपरिणामविमुक्तं, अथवाऽवनतिद्वयद्वादशावर्तचतुःशिर:क्रियाभिःशुद्धं । मदरहितं जात्यादिमदहीनं । द्विविधस्थानं द्वे पर्यंककायोत्सर्गौ स्थाने यस्य तत् द्विविधं स्थानं । .. पुनरुक्तं क्रियां क्रियां प्रति, तदेव क्रियत इति पुनरुक्तं, विनयेन विनययुक्त्या क्रमविशुद्धं 'क्रममनतिलंघ्यागमानुसारेण कृतिकर्म भवति कर्त्तव्यं । न पुनरुक्तो दोषो द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकशिष्यसंग्रहणादिति ॥१०१॥
चार शिर-यह तृतीय प्रकार, ऐसे तीन प्रकार । अथवा कृत, कारित, अनुमोदना के भेद से तीन प्रकार, अथवा प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और वन्दना.के भेद से तीन प्रकार, अथवा पंचनमस्कार, ध्यान और चतुर्विंशतिस्तव अर्थात् सामायिक दण्डक, कायोत्सर्ग और थोस्मामि-स्तव-इन भेदों से तीन प्रकार होते हैं । अर्थात् यहाँ त्रिविध शब्द से पाँच तरह से तीन प्रकार को लिया है, जो कि सभी ग्राह्य हैं किन्तु फिर भी यहाँ कृतिकर्म द्वितीय प्रकार और पाँचवाँ प्रकार ही मुख्य है। ...
त्रिकरणशुद्ध-मनवचनकाय के अशुभ परिणाम से रहित अथवा दो अवनति, बारह आवर्त और चार शिर-इन क्रियाओं से शुद्ध, मदरहित-जाति, कुल आदि आठ मदों से रहित, द्विविधस्थान-पर्यंक आसन और खड़े होकर कायोत्सर्ग आसन-ये दो प्रकार के स्थान कृतिकर्म में होते हैं ।
पुनरक्त-क्रिया-क्रिया के प्रति अर्थात् प्रत्येक क्रियाओं के प्रति वही विधि की जाती है—यह पुनरक्त होता है । यहाँ यह दोष नहीं है । प्रत्युत्त करना ही चाहिए ।
इस तरह से त्रिविध, त्रिकरणशुद्ध, मदरहित, द्विविध-स्थान युक्त और पुनरुक्त-इतने विशेषणों से युक्त विनय से युक्त होकर, क्रम का उल्लंघन न करके, आगम के अनुसार कृतिकर्म करना चाहिए ।
पूर्वगाथा में यद्यपि कृतिकर्म का लक्षण बता दिया था, फिर भी इस गाथा में विशेष रूप से कहा गया है अतः पुनरुक्त दोष नहीं है । क्योंकि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक शिष्यों के संग्रह के लिए ऐसा कहा गया है । अर्थात् संक्षेप से समझने की बुद्धि वाले शिष्य पहली गाथा से स्पष्ट समझ लेगें, किन्त विस्तार से समझने की बुद्धि वाले शिष्यों के लिए दोनों गाथाओं के द्वारा समझना सरल होगाऐसा जानना ॥१०१॥
१.
क ०शुद्ध्या ।
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