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आवश्यकनियुक्तिः
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पुनरपि क्रियाकर्मप्रयुंजनविधानमाहतिविहं तियरणसुद्धं मयरहियं दुविहठाण पुणरुत्तं । विणएण कमविसुद्धं किदियम्मं होदि कायव्वं ।।१०१।।
त्रिविधं त्रिकरणशुद्धं मदरहितं द्विविधस्थानं पुनरुक्तं ।
विनयेन क्रमविशुद्धं कृतिकर्म भवति कर्तव्यं ॥१०१।। त्रिविधं ग्रंथार्थोभयभेदेन त्रिप्रकारं, अथवाऽवनतिद्वयमेकः प्रकार: द्वादशावर्त द्वितीय: प्रकारश्चतुःशिरस्तृतीयं विधानमेवं त्रिविधं, अथवा कृतकरितानुमति
एक बार के कायोत्सर्ग में यह उपर्युक्त विधि की जाती है, उसी का नाम कृतिकर्म है । यह विधि देववन्दना, प्रतिक्रमण आदि सर्व क्रियाओं में भक्तिपाठ के प्रारम्भ में की जाती है । जैसे देववन्दना में चैत्यभक्ति के प्रारम्भ में यह प्रतिज्ञा हुई
इसमें बोलकर भूमि स्पर्शनात्मक पंचांग नमस्कार करें । यह एक अवनति हुई । अनन्तर तीन आवर्त और एक शिरोनति करके “णमो अरिहंताणं, चत्तारिमंगलं अड्डाइज्जदीव-इत्यादि पाठ बोलते हुए 'दुच्चरियं वोस्स-रामि' तक पाठ बोले । यह 'सामायिकस्तव' कहलाता है । पुनः तीन आवर्त और एक शिरोनति करें । इस तरह सामायिक दण्डक के आदि और अन्त में तीन-तीन आवर्त और एक-एक शिरोनति होने से छह आवर्त और दो शिरोनति हुई । ___पुनः नौ बार णमोकार मन्त्र को सत्ताईस श्वासोच्छ्वास में जपकर भूमिस्पर्शनात्मक नमस्कार करें । इस तरह प्रतिज्ञा के अनन्तर और कायोत्सर्ग के अनन्तर ऐसे दो बार अवनति हो गयीं । ... बाद में तीन आवर्त, एक शिरोनति करके 'थोस्सामि-स्तव' पढ़कर अन्त में पुन: तीन आवर्त, एक शिरोनति करें । इस तरह चतुर्विंशति स्तव के आदि और अन्त में तीन-तीन आवर्त और एक-एक शिरोनति करने से छह आवर्त और दो शिरोनति हो गयीं । . ... इस प्रकार एक कायोत्सर्ग के करने में दो प्रणाम, बारह आवर्त और चार शिरोनति होती है ॥१०॥
गाथार्थ-अवनति, आवर्त और शिरोनति-ये तीन प्रकार, मन-वचनकाय से शुद्ध, मंदरहित, पर्यंक और कायोत्सर्ग-इन दो स्थान युक्त, पुनरुक्ति युक्त विनय से क्रमानुसार कृतिकर्म करना होता है ॥१०१॥ ____ आचारवृत्ति-त्रिविध-ग्रन्थ (शब्द), अर्थ और उभय (शब्दार्थ) के भेद से तीन प्रकार, अथवा दो अवनति यह एक प्रकार, बारह आवर्त यह दो प्रकार,
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