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आवश्यकनियुक्तिः
बारसावत्तमेव य द्वादशावर्ता एवं च पंचनमस्कारोच्चारणादौ मनोवचनकायानां संयमनानि शुभयोगवृत्तयस्त्रय आवर्तास्तथा पंचनमस्कारसमाप्तौ मनोवचनकायानां शुभवृत्तयस्त्रीण्यन्यान्यावर्तनानि तथा चतुर्विंशतिस्तवादौ मनोवचनकाया:. शुभवृत्तयस्त्रीण्य पराण्यावर्तनानि तथा चतुर्विंशतिस्तवसमाप्तौ शुभमनोवचनकायवृत्तयस्त्रीण्यन्यान्यावर्तनानि द्वादशधा मनोवचनकायवृत्तयो द्वादशावर्ता भवंति, अथवा चतसृषु दिक्षु चत्वारः प्रणामा एकस्मिन् भ्रमणे एवं . त्रिषु भ्रमणेषु द्वादश भवंति ।
चतुस्सिरं चत्वारि शिरांसि पंचनमस्कारस्यादावंते च करमुकुलांकितशिर:करणं तथा चतुर्विंशतिस्तवस्यादावंते च करमुकुलांकितशिर:करणमेवं चत्वारि शिरांसि भवंति, त्रिशुद्धं मनोवचनकायशुद्धं क्रियाकर्म प्रयुक्ते करोति । द्वे अवनती यस्मिन्तत् व्यवनति द्वादशावत: यस्मिंस्तत् द्वादशवर्त्त, मनोवचनकायशुद्ध्या चत्वारि शिरांसि यस्मिन् तत् चतुःशिरःक्रियाकर्मैवं विशिष्टं यथाजातं क्रियाकर्म प्रयुंजीतेति ॥१०॥
द्वादश आवर्त-पंच नमस्कार के उच्चारण के आदि में मन वचन काय के संयमन रूप शुभयोगों को प्रवृत्ति होना में तीन आवर्त पंचनमस्कार की समाप्ति में मनवचनमय की शुभवृत्ति होना ये तीन आवर्त, तथा चतुर्विंशति स्तव की आदि में मन-वचन-काय की शुभप्रवृत्ति होना-ये तीन आवर्त एवं चतुर्विंशति स्तव की समाप्ति में शुभ मन वचन काय की प्रवृत्ति होना- ये तीन आवर्त ऐसे मन वचन काय की शुभप्रवृत्ति रूप बारह आवर्त होते हैं । अथवा चारों ही दिशाओं में चार प्रणाम एक भ्रमण में ऐसे ही तीन बार के भ्रमण में बारह हो जाते हैं ।
चतुःशिर-पंचनमस्कार के आदि और अन्त में कर-मुकुलित करके अंजलि जोड़कर माथे से लगाना तथा चतुर्विंशति स्तव के आदि और अन्त में कर-मुकुलित करके माथे से लगाना-ऐसे चार शिर-शिरोनति होती है ।
इस तरह इसे एक कृतिकर्म में दो अवनति, बारह आवर्त और चार शिरोनमन होते हैं । मन वचन काय की शुद्धि पूर्वक इस विधानयुक्त यथाजात कृतिकर्म का प्रयोग करें।
___ कृतिकर्म की विधि-पूज्य गणिनी आर्यिका ज्ञानमतीमाताजी के भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली से प्रकाशित मूलाचार टीका (पृष्ठ ४४३) में इस गाथा के विशेषार्थ में इस सबकी विधि इस प्रकार बताई है
१.
यह गाथा भगवती आराधना गाथा सं. ११६ की विजयोदया टीका में भी आयी है ।
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