________________
आवश्यकनियुक्तिः
कर्माणि चतुर्दश भवन्ति; तथाऽपराणवेलायां स्वाध्याये त्रीणि क्रियाकर्माणि प्रतिक्रमणे चत्वारि वंदनायां द्वे योगभक्तिग्रहणोपसंहारकालयोः द्वे रात्रौ प्रथमस्वाध्याये त्राणि । एवमपराह्णक्रियाकर्माणि चतुर्दश भवंति ।
प्रतिक्रमणस्वाध्यायकालयोरुपलक्षणत्वादिति, अन्यान्यपि क्रियाकर्माण्यित्रैवान्तर्भवन्ति नाव्यापकत्वमिति सम्बन्धः । पूर्वाणसमीपकालः पूर्वाण इत्युच्येतऽपराह्णसमीपकालोऽपराण इत्युच्यते तस्मान्न दोष इति ॥१९॥
कत्यवनतिकरणमित्यादि यत्पृष्टं तदर्थमाहदोणदं तु जधाजादं बारसावत्तमेव य । चदुस्सिरं तिसुद्धं च किदियम्मं पउंजदे ।।१०।।
व्यवनतिस्तु यथाजातं द्वादशावर्तमेव च ।
चतुःशिर:त्रिशुद्धं च कृतिकर्म प्रयुंजते ।।१००॥ दोणदं-द्वे अवनती पंचनमस्कारादावेकावनतिर्भूमिसंस्पर्शस्तथा चतुर्विंशतिस्तवादौ द्वितीयाऽवनति: शरीरनमनं द्वे अवनती जहाजादं-यथाजातं जातरूपसदृशं क्रोधमानमायासंगादिरहितं ।
बेला में स्वाध्याय में तीन क्रियाकर्म, प्रतिक्रमण में चार, वन्दना में दो, योगभक्ति ग्रहण और उपसंहार में दो एवं रात्रि में प्रथम स्वाध्याय के तीन इस तरह अपराह्न सम्बन्धों क्रियाकर्म चौदह होते हैं ।
'गाथा में प्रतिक्रमण और स्वाध्याय काल उपलक्षण रूप है, इससे अल्प भी क्रियाकर्म इन्हीं में अन्तर्भूत हो जाते हैं । अत: अव्यापक दोष नहीं आता है । चूँकि पूर्वाह्न के समीप का काल पूर्वाह्न कहलाता है और अपराह्न के समीप का काल अपराह्न कहलाता है, इसलिए कोई दोष नहीं है ॥१९॥ _ कितनी अवनति करना चाहिए ? इस प्रश्न के पूछने पर कहते हैं ?
गाथार्थ-जातरूप सदृश दो अवनति, बारह आवर्त, चार शिरोनति और तीन शुद्धि सहित कृतिकर्म का प्रयोग करें ॥१००॥
आचारवृत्ति-दो अवनति-पंच नमस्कार के आदि में एक बार अवनति अर्थात् भूमि स्पर्शनात्मक नमस्कार करना तथा चतुर्विंशति स्तव के आदि में दूसरी बार अवनति शरीर का नमाना अर्थात् भूमिस्पर्शनात्मक नमस्कार करना-ये दो अवनति हैं । यथाजात अर्थात् जातरूप सदृश, क्रोध, मान, माया और संग (परिग्रह) या लोभ आदि रहित कृतिकर्म को मुनि करते हैं ।
१.
अ-च ।
२.
ग. तिसुद्धिं ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org