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आवश्यक नियुक्तिः
दर्शनज्ञानचारित्रपोविनयेषु नित्यकालमभीक्ष्णमुपयुक्ताः सुष्ठु निरता ये ते ते वंदनीया गुणधराणां शीलधराणां च गुणवादिनो ये च ते वंदनीया इति ॥९५॥
संयतमप्येवं स्थितमेतेषु स्थानेषु च न वंदेतेत्याहवाखित्तपराहुत्तं तु पमत्तं मा कदाइ वंदिज्जो । आहारं च करंतो णीहारं वा जदि करेदि ।। ९६ ।।
व्याक्षिप्तपरावृत्तं तु प्रमत्तं मा कदाचित् बन्देत ।
आहारं च कुर्वन्तं नीहारं वा यदि करोति ॥९६॥
व्याक्षिप्तं ध्यानादिनाकुलचित्तं परावृत्तं पराङ्मुखं पृष्ठदेशतः स्थितं प्रमत्तं निद्राविकथादिरतं मा कदाचिद् वंदिज्ज नो वंदेत संयतमिति संबंधस्तथाऽहारं च कुर्वन्तं भोजनक्रियां कुर्वाणं नीहारं वा मूत्रपुरीषादिकं यदि करोति तदाऽपि नो कुर्वीत वंदनां साधुरिति ॥९६॥
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आचारवृत्ति - जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय – इनमें भली प्रकार सदाकाल उपयुक्त अर्थात् संलग्न हैं, वे वंदना के योग्य हैं और जो गुणधरों एवं शीलगुण के धारी है, गुणानुवाद करने वाले हैं, वे वन्दनीय हैं ॥९५॥
संयत भी यदि इस तरह स्थित हैं तो उन स्थानों में उनकी भी वन्दना न करें, सो ही बताते हैं
गाथार्थ - जो व्याकुलचित्त हैं, पीठ फेर कर बैठे हुए हैं, या प्रमाद सहित हैं, उनकी भी कभी उस समय वन्दना न करें और आहार कर रहे हैं अथवा नीहार (मल-मूत्रादि त्याग) कर रहे हैं, उस समय भी ( मुनि आदि की) वन्दना न करें ॥९६॥
अ. ब. हु ।
आचारवृत्ति – व्याक्षिप्त-ध्यान आदि से आकुलचित्त हैं, पीठ फेर कर बैठे हुए हैं, प्रमत्त, निन्द्रा या विकथा आदि में लगे हुए हैं, आहार कर रहे हैं या मलमूत्रादि विसर्जन कर रहे हैं। संयमी मुनि भी यदि इस प्रकार की स्थिति में हैं तो साधु उस समय उनकी भी वन्दना न करें ॥९६॥
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