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आवश्यकनियुक्तिः
के तर्हि वंद्युत्तेऽत आहसमणं वंदेज्ज मेधावी सजदं सुसमाहिदं । पंचमहव्वदकलिदं असंजमदुगंछयं धीरं ।।९४।।
श्रमणं वन्देत मेधाविन् संयतं सुसमाहितं ।
पञ्चमहाव्रतकलितं असंयमजुगुप्सकं धीरं ॥१४॥ हे मेधाविन् ! चारित्राद्यनुष्ठानतत्पर ! श्रमणं निर्ग्रन्थरूपं वंदेत पूजयेत् किंविशिष्टं संयतं चारित्राद्यनुष्ठानतन्निष्ठं । पुनरपि किंविशिष्टं ? सुसमहितं ध्यानाध्ययनतत्परं क्षमादिसहितं पंचमहाव्रतकलितं असंयमजुगुप्सकं प्राणेन्द्रियसंयमपरं धीरं धैर्योपेतं चागमप्रभावनाशीलं सर्वगुणोपेतमेवं विशिष्टं स्तूयादिति ॥९४||
तथादसणणाणचरित्ते तवविणए णिच्चकालमुवजुत्ता । एदे खु वंदणिज्जा जे गुणवादी गुणधराणं ।।९५।।
दर्शनज्ञानचारित्रे तपोविनयेषु नित्यकालमुपयुक्ताः । एते खलु वन्दनीया ये गुणवादिनः गुणधराणाम् ।।९५।।
कौन वन्दनीय है ? यह बताते हैं
गाथार्थ हे बुद्धिमान् ! पाँच महाव्रतों से सहित, असंयम से रहित, धीर एकाग्रचित्तवाले संयत ऐसे मुनि की वन्दना करो ॥१४॥ ___ आचारवृत्ति-हे चारित्रादि अनुष्ठान में तत्पर विद्वन् मुने ! तुम ऐसे निर्ग्रन्थरूप श्रमण की वन्दना करो जो चारित्रादि के अनुष्ठान में निष्ठ हैं, ध्यानअध्ययन में तत्पर रहते हैं, क्षमादि गुणों से सहित हैं, पाँच महाव्रतों से युक्त हैं, असंयम के जुगुप्सक, प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम में परायण हैं, धैर्यगुण से सहित हैं, आगम की प्रभावना करने के स्वभावी हैं-इन सर्वगुणों से सहित मुनियों की वन्दना व स्तुति करो ॥९४।।
इसी प्रकार से और भी बताते हैं
गाथार्थ-जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इनके विनयों में हमेशा लगे रहते हैं, जो गुणधारी मुनियों के गुणों का बखान करते हैं, वास्तव में वे मुनि वन्दनीय हैं ॥१५॥
१.
अ. ब. जुगंछयं ।
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