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________________ आवश्यकनियुक्तिः केन विधानेन वंद्यते इत्याशंकायामाहआसणे आसणत्थं च उवसंतं उवट्ठिदं । अणु विण्णय मेधावी किदियम्मं पउंजदे ।।९७।। आसने आसनस्थं च उपशान्तं च उपस्थितं । अनुविज्ञाप्य मेधावी कृतिकर्म प्रयुक्ते ।।१७।। आसने विविक्तभूप्रदेशे आसनस्थं पर्यंकादिना व्यवस्थितं अथवा आसने आसनस्थमव्याक्षिप्तमपराङ्मुखमुपशांतं उपस्थितं वंदनां कुर्वीत इति स्थितं अनुविज्ञाप्य वंदनां करोमीति संबोध्य मेधावी प्राज्ञोऽनेन विधानेन कृतिकर्म प्रारभेत प्रयुंजीत विदधीतेत्यर्थः ॥९७॥ कथमिव गतं सूत्रं वंदनायाः स्थानमित्याहआलोयणाय करणे पडिपुच्छा पूयणे' य सज्झाए । अवराहे य गुरूणं वंदणमेदेसु. ठाणेसु ।।९८।। आलोचनाया: करणे प्रतिपृच्छायां पूजने च स्वाध्याये । .. अपराधे च गुरूणां वन्दनमेतेषु स्थानेषु ॥९८॥ किस विधान से स्थित हों तो वन्दना करें ? सो ही बताते हैं गाथार्थ-जो आसन पर बैठे हुए हैं,शांतचित्त हैं एवं सन्मुख मुख किए हुए हैं उनकी अनुज्ञा लेकर विद्वान् मुनि वन्दना विधि का प्रयोग करें ॥१७॥ आचारवृत्ति-एकांत भूमिप्रदेश में जो पर्यंक आदि आसन से बैठे हुए हैं अथवा आसन-पाटे आदि पर बैठे हुए हैं, जो शांत-निराकुल चित्त हैं, अपनी तरफ मुख करके बैठे हुए हैं, स्वस्थ चित्त हैं, उनके पास आकर-'हे भगवान् ! मैं वन्दना करूँगा' ऐसा सम्बोधन करके विद्वान् मुनि इस विधि से कृतिकर्मविधिपूर्वक वन्दना प्रारम्भ करें । इस प्रकार से वन्दना किनकी करना और कैसे करना इन दो प्रश्नों का उत्तर हो चुका है ॥१७॥ अब वन्दना कब करना ? यह बताते हैं गाथार्थ-आलोचना के करने में, प्रश्न पूछने में, पूजा करने में, स्वाध्याय के प्रारम्भ में और अपराध के हो जाने पर-इन स्थानों में गुरुओं की वन्दना करें ॥९८॥ १. अ. ब. क. अणुण्णचित्त मे । २. अ. ब. पूजणे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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