SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६४ आवश्यकनियुक्तिः तथा तपोविनयप्रयोजनमाहअवणयदि तवेण तमं उवणयदि मोक्खमग्गमप्पाणं । तवविणयणियमिदमदी सो तवविणओ ति णादव्यो ।।८७।। अपनयति तपसा तमः उपनयति मोक्षमार्गमात्मानं । । तपोविनयनियमितमति: स तपोविनय इति ज्ञातव्यः ॥८७॥ इत्येवमादिगाथानां 'आयारजीदा' 'दि गाथापर्यन्तानां तप आचारेर्थः इति कृत्वा नेह प्रतन्यते पुनरुक्तदोषभयादिति ॥८७॥ यतो विनय: शासनमूलं यतश्च विनय: शिक्षाफलम्- . . तह्मा सव्वपयत्तेण विणयत्तं मा कदाइ छडिज्जो। अप्पसुदो वि य पुरिसो खवेदि कम्माणि विणएण ।।८८।। तस्मात् सर्वप्रयत्नेन विनयत्वं मा कदापि त्यजेत् । अल्पश्रुतोपि च पुरुषः क्षपयति कर्माणि विनयेन ॥८८।। अब तपोविनय का प्रयोजन कहते हैं गाथार्थ-तप के द्वारा तम को दूर करता है और अपने को मोक्ष-मार्ग के समीप करता है । जो तप के विनय में बुद्धि को नियमित कर चुका है वह ही तपोविनय है-ऐसा जानना चाहिए ॥८७॥ आचारवृत्ति-गाथा का अर्थ स्पष्ट है । इसी प्रकार से पूर्व में 'आयार जीदा' आदि गाथा पर्यंत तप आचार में तप विनय का विस्तृत वर्णन किया गया है । इसलिए यहाँ पर विस्तार नहीं करते हैं, क्योंकि वैसा करने से पुनरुक्त दोष आ जाता है ॥८७॥ आगे कहते हैं चूँकि विनय शासन का मूल है इसलिए विनय शिक्षाफल है गाथार्थ-इसलिए सभी प्रयत्नों से विनय को कभी भी मत छोड़ो, क्योंकि अल्पश्रुत का धारक भी पुरुष विनय से कर्मों का क्षपण कर देता है ॥८८॥ मूलाचार के ही 'पंचाचार' नामक पंचम अधिकार में दंसणणाणे विणओ इत्यादि-गाथा सं. १६७ से लेकर “आयारजीदकुप्पगुणदीवणा" ......... इत्यादि गाथा सं. १९१ तक की गाथाओं में “विनय” का विस्तृत विवेचन किया गया है । इनमें भी उत्तरगुणउज्जोगो.....इत्यादि गाथा सं. १७३ से लेकर आयारजीदकप्पगुणदीवणा अत्तसोधिणिज्जंजा । अज्जवमद्दवलाहवभत्तीपल्हादकरणं च-इस गाथा सं. १८९ तक की गाथाओं में तपोविनय का ही अच्छा विवेचन किया गया है । अत: इन सबकी जानकारी के लिए मूल ग्रन्थ मूलाचार के पूर्वोक्त प्रकरणों को देखना चाहिए। २. ब. कदाय । Jain Education International www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy