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________________ आवश्यकनियुक्तिः यस्माज्ज्ञानी गच्छति मोक्षं जानाति वा गतेनिगमनप्राप्त्यर्थकत्वात्, यस्माच्च ज्ञानी वंचति परिहरति पापं यस्माच्च ज्ञानी नवं कर्म नाददाति न कर्मभिरिति यस्माच्च ज्ञानेन करोति चरणं चारित्रं तस्माच्च ज्ञाने भवति विनय: कर्तव्य इति ॥८५॥ अथ चारित्रे विनय: किमर्थं क्रियत इत्याशंकायामाहपोराणय कम्मरयं चरिया रित्तं करेदि जदमाणो । णवकम्मं ण य बंधदि चरित्तविणओत्ति णादव्वो ।।८६।। पौराणं कर्मरजः चर्यया रिक्तं करोति यतमानः । नवकर्म न च बध्नानि चरित्रविनय इति ज्ञातव्यः ॥८६॥ चिरंतनकर्मरजश्चर्यया चारित्रेण रिक्तं तुच्छं करोति यतमानश्चेष्टमानो नवं कर्म च न बध्नाति यस्मात्, तस्माच्चारित्रे विनयो भवति कर्त्तव्य इति ज्ञातव्यः ॥८६॥ . गाथार्थ-ज्ञानी मोक्ष को प्राप्त करता अथवा जानता है, ज्ञानी छोड़ता है और ज्ञानी नवीन कर्म को नहीं ग्रहण करता है, ज्ञान से चारित्र का पालन करता है इसलिए ज्ञान में विनय होवे ||८५।। - आचारवृत्ति-जिस हेतु से ज्ञानी मोक्ष को प्राप्त करता है अथवा जानता है । गति अर्थ वाले धातु ज्ञान, गमन और प्राप्ति अर्थवाले होते हैं ऐसा व्याकरण का नियम है । अत: यहाँ गच्छति का जानना और प्राप्त करना अर्थ किया है। जिससे ज्ञानी पाप की वंचना-परिहार करता है और नवीन कर्मों से नहीं बँधता है तथा ज्ञान से चारित्र को धारण करता है इसलिए ज्ञान में विनय करना चाहिए ॥८५॥ चारित्र में विनय क्यों करना ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं. गाथार्थ-यत्नपूर्वक प्रवृत्ति करता हुआ साधु चारित्र से पुराने कर्मरज को खाली करता है और नूतन कर्म नहीं बाँधता है इसलिए उसे चारित्रविनय जानना चाहिए ॥८६॥ आचारवृत्ति-यत्नपूर्वक प्रवृत्ति करता हुआ मुनि अपने आचरण से चिरकालीन कर्मधूलि को तुच्छ (समाप्त या साफ) कर देता है तथा नूतन कर्मों का बन्ध नहीं करता है अत: चारित्र में विनय करना चाहिए ॥८६॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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