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________________ ६० आवश्यकनियुक्तिः तत्रादौ तावल्लोकानुवृत्तिविनयस्वरूपमाहअब्भुट्ठाणं अंजलि आसणदाणं च अतिहिपूजा य । । लोगाणुवित्तिविणओ देवदपूया सविहवेण' ।।८।। . अभ्युत्थानं अंजलिः आसनदानं च अतिथिपूजा च । लोकानुवृत्तिविनयः देवतापूजा स्वविभवेन ॥८०॥ अभ्युत्थानं कश्मिश्चिदागते आसनादुत्थानं प्रांजलिरंजलिकरणं स्वावासमागतस्यासनदानं तथाऽतिथिपूजा च मध्याह्नकाले आगतस्य साधोरन्यस्य वा धार्मिकस्य बहुमानं देवतापूजा च स्वविभवेन स्ववित्तानुसारेण देवपूजा च तदेतत्सर्वं लोकानुवृत्तिर्नाम विनयः ॥८०॥ तथाभासाणुवित्ति छंदाणुवत्तणं देसकालदाणं च । लोकाणुवत्तिविणओ अंजलिकरणं च अत्थकदे ।।८१।। भाषानुवृत्तिः छन्दानुवर्तनं देशकालदानं च । लोकानुवृत्तिविनय: अंजलिकरणं च अर्थकृते ॥८१॥ भाषाया वचनस्यनुवृत्तेरनुवर्त्तनं यथासौ वदति तथा सोऽपि भणति भाषानुवृत्तिः, छंदानुवर्तनं तदभिप्रायानुकूलाचरणं, देशयोग्यं कालयोग्यं च यद्दानं आरम्भ में लोकानुवृत्ति विनय का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ-उठकर खड़े होना, हाथ जोड़ना, आसन देना, अतिथि की पूजा करना, और अपने विभव के अनुसार देवों की पूजा करना यह लोकानुवृत्ति विनय है ॥८०॥ __ आचारवृत्ति-किसी पूज्य के अर्थात् बड़ों के आने पर आसन से उठकर खड़े होना, अंजुलि जोड़ना, अपने आवास में आये हुए को आसन देना, अतिथि-पूजा-मध्याह्नकाल में आये हुए साधु या अन्य धार्मिकजन अतिथि कहलाते हैं उनका बहमान करना और अपने विभव या धन के अनुसार देवपूजा करना, सो यह सब लोकानुवृत्ति नाम का विनय है ॥८०॥ गाथार्थ-अनुकूल वचन बोलना, अनुकूल प्रवृत्ति करना, देशकाल के योग्य दान देना, अंजुलि जोड़ना और लोक के अनुकूल रहना सो लोकानुवृत्ति विनय है तथा अर्थ के निमित्त से ऐसा ही करना अर्थविनय है ॥८१॥ आचारवृत्ति-भाषानुवृत्ति-जैसे वे बोलते हैं वैसे ही बोलना, छन्दानुवर्तनउनके अभिप्राय के अनुकूल आचरण करना, देश के योग्य और काल के योग्य १. अ. ब. यासणदाणं । २. अ. ब. सविभवेण । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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