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आवश्यक नियुक्तिः
कतिवारान्मनोवचनकाया आवर्त्तनीयाः । कदि दोसविप्यमुक्कं – कति दोषैर्विमुक्तं कृतिकर्म भवति कर्त्तव्यमिति ॥ ७६ ॥
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इति प्रश्नमालायां कृतायां तावत्कृति' कर्मविनयकर्मणोरनेकार्थ इति कृत्वा विनयकर्मणः सप्रयोजनां निरुक्तिमाह
जह्या विदि' कम्मं अट्ठविहं चाउरंगमोक्खो य । तह्या वदंति विदुसो विणओत्ति विलीणसंसारा ।। ७७ ।। यस्मात् विनयति कर्म अष्टविधं चातुरंगमोक्षश्च । तस्मात् वदन्ति विद्वान्सो विनय इति विलीनसंसाराः ॥७७॥ यस्माद्विनयति विनाशयति कर्माष्टविधं चातुरंगात्संसारान्मोक्षश्च यस्माद्विनयात्तस्माद्विद्वांसो विलीनसंसारा विनय इति वदंति ॥७७॥
यस्माच्च—
पुव्वं चेव य विणओ परूविदो जिणवरेहिं सव्वेहिं । सव्वासु कम्मभूमिसु णिच्चं मोक्खमग्गम्मि ।।७८ । ।
पूर्वस्मिन् चैव विनयः प्ररूपितो जिनवरैः सर्वैः । सर्वासु कर्मभूमिषु नित्यं स मोक्षमार्गे ॥७८॥
आवर्तन करना या अंजुलि जुड़े हाथों को घुमाना सो आवर्तत है - यह कितनी बार करना चाहिए ? एवं कितने दोषों से रहित यह कृतिकर्म होना चाहिए ?
इस प्रकार से प्रश्नमाला के करने पर पहले कृतिकर्म और विनयकर्म एक ही अर्थ है । इसलिए विनयकर्म की प्रयोजन सहित निरुक्ति को कहते हैं ॥७६॥
गाथार्थ – जिससे आठ प्रकार का कर्म नष्ट हो जाता है और चतुरंग संसार से मोक्ष हो जाता है । इस कारण से संसार से रहित विद्वान् उसे “विनय” कहते हैं ॥७७॥
आचारवृत्ति - जिस विनय से कर्मों का नाश होता है और चतुर्गति रूप संसार से मुक्ति मिलती है इससे संसार का विलय करने वाले विद्वान् उसे 'विनय' यह सार्थक नाम देते हैं ॥७७॥ क्योंकि
गाथार्थ - पूर्व में सभी जिनवरों ने सभी कर्मभूमियों में मोक्षमार्ग के कथन में नित्य ही उस विनय का प्ररूपण किया है ॥७८॥
क० कर्मणः विनयकर्मणो० ।
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२.
कविणेयदि ।
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