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आवश्यकनियुक्तिः
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येन तच्चितिकर्म पुण्यसंचयकारणं । पूज्यन्तेऽर्च्यन्तेऽर्हदादयो येन तत्पूजाकर्म बहुवचनोच्चारणस्रक् चंदनादिकं । विनीयंते निराक्रियन्ते संक्रमणोदयोदीरणादि भावेन प्राप्यते येन कर्माणि तद्विनयकर्म शुश्रूषणं ।
तत्क्रियाकर्म कर्तव्यं केन कस्य कर्तव्यं कथमिव केन विधानेन कर्त्तव्यं कस्मिन्नवस्थाविशेषे कर्त्तव्यं कतिवारान् ॥७५।।
तथाकदि ओणदं कदि सिरं कदि आवत्तगेहिं परिसुद्धं । कदिदोसविप्पमुक्कं किदियम्मं होदि कादव्वं ।।७६।।
कियन्त्यवनतानि कति शिरांसि कतिभिः आवर्तकैः परिशुद्धं ।
कतिदोषविप्रमुक्तं कृतिकर्म भवति कर्त्तव्यम् ॥७६।। कदि ओणदं कियन्त्यवनतानि । कति करमुकुलांकितेन शिरसा भूमिस्पर्शनानि कर्त्तव्यानि । कदि सिरं-कियन्ति शिरांसि कतिवारान् शिरसि करकुङ्मलं कर्तव्यं । कदि आवत्तगेहिं परिसुद्धं-कियद्भिरावर्त्तकैः परिशुद्धं
चितिकर्म-जिस अक्षर समूह से या परिणाम से अथवा क्रिया से तीर्थकरत्व आदि पुण्यकर्म का चयन होता है-सम्यक् प्रकार से अपने साथ एकीभाव होता है या संचय होता है, वह पुण्य संचय का कारणभूत चितिकर्म है।
पूजाकर्म-जिन (अक्षर आदिकों) के द्वारा अरिहंत आदि देव पूजे जाते हैं-अचें जाते हैं—ऐसा बहुवचन से उच्चारण कर उनको जो माला, चन्दन आदि चढ़ाये जाते हैं वह पूजाकर्म कहलाता है । · · · विनयकर्म-जिसके द्वारा कर्मों का निराकरण किया जाता है अर्थात् संक्रमण, उदय, उदीरणा आदि भाव से प्राप्त करा दिये जाते हैं, वह विनय है जो कि शुश्रुषा रूप है । यह वन्दना आवश्यक क्रिया किसे ? किसकी ? किस तिथि से ? किस अवस्था विशेष में ? एवं कितनी बार करना चाहिए ? इत्यादि प्रश्नों के साथ ही इस सम्बन्ध में (अन्य प्रश्न आगे कहे जा रहे हैं-॥७५॥
उसी प्रकार से और भी प्रश्न होते हैं
गाथार्थ-कितनी अवनति, कितनी शिरोनति, कितनी आवर्तों से परिशुद्ध, कितने दोषों से रहित कृतिकर्म करना चाहिए ? ॥७६॥
आचारवृत्ति-हाथों को मुकुलित जोड़कर, मस्तक से लगाकर शिर से भूमि स्पर्श करके जो नमस्कार होता है, उसे अवनति या प्रणाम कहते हैं । वह अवनति कितने बार करना चाहिए ? मुकुलित-जुड़े हुए हाथ पर मस्तक रखकर नमस्कार करना शिरोनति है सो कितनी होनी चाहिए ? मन वचन काय का
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