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________________ ५६ आवश्यकनियुक्तिः वंदनाशब्दमात्रं नामवंदनापरिणतस्य प्रतिकृतं प्रतिकृतिवंदना स्थापनावंदनावन्दनाव्यवर्णनाभृतज्ञोऽनुपयुक्त आगमद्रव्यवंदना शेषः पूर्ववदिति । एष वंदनाया निक्षेपः षड्विधो भवति ज्ञातव्यो नामादिभेदेनेति ॥७४॥ नामवंदनां प्रतिपादयन्नाहकिदियम् चिदियम्मं पूयाकम्मं च विणयकम्मं च । कादव्वं केण' कस्स व कधे व कहिं व कदिखुत्तो ।।७५।। कृतिकर्म चितिकर्म पूजाकर्म च विनयकर्म च । कर्तव्यं केन तस्य वा कथं वा कस्मिन् वा कृतकृत्यः ॥७५॥ पूर्वगाथार्थेन वंदनाया एकार्थः कथ्यतेऽपरार्द्धन तद्विकल्पा इति । कृत्यते छिद्यते अष्टविधं कर्म येनाक्षरकदंबकेन परिणामेन क्रियया वा तत्कृतिकर्म पापविनाशनोपाय: । चीयते समेकीक्रियते संचीयते पुण्यकर्म तीर्थंकरत्वादि अथवा जाति, द्रव्य व क्रिया से निरपेक्ष किसी का 'वन्दना' ऐसा शब्द मात्र से संज्ञा कर्म करना नाम वन्दना है । वन्दना से परिणत हुए का जो प्रतिबिम्ब है वह स्थापना वन्दना है । वन्दना के वर्णन करने वाले शास्त्र का जो ज्ञाता है किन्तु उसमें उस समय उपयोग उसका नहीं है वह आगमद्रव्य वन्दना है । बाकी के भेदों को पूर्ववत् समझ लेना चाहिए । वन्दना का यह निक्षेप नाम आदि के भेद से छह प्रकार का है ऐसा जानना चाहिए ॥७४।। नाम वन्दना का प्रतिपादन करते हैं गाथार्थ-कृतिकर्म, चितिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म-ये वन्दना के एकार्थ नाम हैं। किसको, किसकी, किस प्रकार से, किस समय और कितनी बार वन्दना करना चाहिए ॥७॥ आचारवृत्ति-गाथा के पूर्वार्ध से वन्दना के पर्यायवाची नाम कहे हैं अर्थात् कृति आदि वन्दना के ही नाम हैं तथा गाथा के अपराध से वन्दना के भेद कहे हैं। कृतिकर्म-जिस अक्षर समूह से या जिस परिणाम से अथवा जिस क्रिया से आठ प्रकार का कर्म काटा जाता है, छेदा जाता है वह कृतिकर्म कहलाता है अर्थात् पापों के विनाशन का उपाय कृतिकर्म है । २. क ०ते पश्चाद्धेन । १. ३. अ. केणु । क पायं । क्रियते समो वा क्रियते । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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