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चतुर्विंशतिनिर्युक्तिः एषा कथिता मया समासेन । वन्दनानिर्युक्तिं पुनः इत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि ॥७३॥
चतुर्विंशतिनिर्युक्तिरेषा कथिता मया समासेन वंदनानिर्युक्तिं पुनरित ऊर्ध्व
प्रवक्ष्यामि प्रतिपादयिष्यामिति ॥७३॥
आवश्यक नियुक्तिः
तथैतां नामादिनिक्षेपैः प्रतिपादयन्नाह—
णामट्ठवणा दव्वे खेत्ते काले य होदि भावे य । एसो खलु वंदणगे णिक्खेवो छव्विहो भणिदो' ।।७४।।
नाम स्थापना द्रव्यं क्षेत्रं कालश्च भवति भावश्च ।
एष खलु वन्दनाया निक्षेपः षड्विधो भणितः ॥७४॥
एकतीर्थंकरनामोच्चारणं सिद्धाचार्यादिनामोच्चारणं च नामावश्यकवंदनानिर्युक्तिरेकतीर्थंकरप्रतिबिंबस्य सिद्धाचार्यादिप्रतिबिंबानां च स्तवनं स्थापनावंदनानिर्युक्तिस्तेषामेव शरीराणां स्तवनं द्रव्यवंदनानिर्युक्तिस्तैरेव यत्क्षेत्रमधिष्ठितं कालश्च योऽधिष्ठितस्तयोः स्तवनं क्षेत्रवंदना कालवंदना च ।
एकतीर्थंकरस्य सिद्धाचार्यादीनां च शुद्धपरिणामेन यद्गुणस्तवनं तद्भावावश्यकवंदनानिर्युक्तिः नामाथवा जातिद्रव्यगुण क्रियानिरपेक्षं संज्ञाकर्म
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आचारवृत्ति - मेरे द्वारा चतुर्विंशति स्तव की नियुक्ति संक्षेप में कही गयी है । अब आगे वन्दना निर्युक्ति का कथन करूँगा - प्रतिपादित करूँगा ॥७३॥ वन्दना को नामादि निक्षेपों के द्वारा प्रतिपादित करते हैंगाथार्थ – नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका यह छह प्रकार का निक्षेप कहा गया है ॥७४॥
- निश्चय से वन्दना
१.
आचारवृत्ति - एक तीर्थंकर का नाम उच्चारण करना, तथा सिद्ध आचा-र्यादि का नाम उच्चारण करना नाम-वन्दना आवश्यक निर्युक्ति है । एक तीर्थंकर के प्रतिबिम्ब का तथा सिद्ध आचार्य आदि के प्रतिबिम्बों का स्तवन करना स्थापना चन्दा नियुक्ति है । एक तीर्थंकर के शरीर का तथा सिद्ध आचार्यों के शरीर का स्तवन करना द्रव्य-वन्दना निर्युक्ति है । इन एक तीर्थंकर, सिद्ध और आचार्यों से अधितिष्ठत जो क्षेत्र हैं उनकी स्तुति करना क्षेत्र - वन्दना नियुक्ति है । ऐसे ही इन्हीं से अधितिष्ठत जो काल है उनकी स्तुति करना काल वन्दना नियुक्ति है ।
एक तीर्थंकर और सिद्ध तथा आचार्यों के गुणों का शुद्ध परिणाम से जो स्तवन है वह भाव- वन्दना नियुक्ति है ।
अ. ब. णेओ ।
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