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आवश्यक नियुक्तिः
चतुर्विंशतिस्तवविधानमाहचउरंगुलंतरपादो पडिलेहिय अंजलीकयपसत्थो । अव्वाखित्तो वृत्तो कुणदि य चउवीसत्थयं भिक्खू ।। ७२ ।। चतुरंगुलांतरपादः प्रतिलिख्य अंजलीकृतप्रशस्तः । अव्याक्षिप्तः उक्तः करोति च चतुर्विंशतिस्तोत्रं भिक्षुः ।।७२))
चतुरंगुलान्तरपादः स्थितांगः परित्यक्तशरीरावयवचालनश्चकारादेतल्लब्धं प्रतिलिख्य शरीरभूमिचित्तादिकं प्रशोच्य प्रांजलिः सपिंड: कृतांजलिपुटेन प्रशस्तः सौम्यभावोऽव्याक्षिप्तः सर्वव्यापाररहितः करोति चतुर्विंशस्तवं भिक्षुः संयतश्चतुरंगुलमंतरं ययोः पादयोस्तौ चतुरंगुलान्तरौ तौ पदौ यस्य स चतुरंगुलान्तरपादः स्थितं निश्चलमंगं यस्य सः स्थितांगः शोभनकायिकवाचिकमानसिकक्रिय इत्यर्थः ॥७२॥
चतुर्विंशतिस्तवनिर्युक्तिमुपसंहर्तुं वंदनानिर्युक्तिं च प्रतिपादयितुं प्राहचवीसयणिज्जत्ती एसा कहिया मए समासेण । वंदणणिज्जत्ती पुण एत्तो उड्ढं पवक्खामि ।। ७३ ।।
हस्तग्राह्य हो जाते हैं । इसलिए यह भक्ति रागपूर्वक ही होती है । यह निदान नहीं कहलाती है, क्योंकि इससे संसार के कारणों का अभाव होता है ॥७१॥
अब चतुर्विंशतिस्तव का विधान कहते हैं
गाथार्थ - चार अंगुल अन्तराल से पैर करके ( खड़े होकर) प्रतिलेखन करके, अंजलि को प्रशस्त जोड़कर, एकाग्रमन हुआ भिक्षु, चौबीस तीर्थंकर का स्तोत्र करता है ॥७२॥
आचारवृत्ति - पैरों में चार अंगुल का अंतर रखकर, स्थिर अंग कर जो खड़े हुए हैं अर्थात् शरीर के अवयवों के हलन चलन से रहित, स्थिर खड़े हैं; यहाँ चकार शब्द से ऐसा समझना कि जिन्होंने अपने शरीर और भूमि का पिच्छिका से प्रतिलेखन करके एवं चित्त आदि का शोधन करके अपने हाथों की अंजलि जोड़ रखी है, जो प्रशस्त - सौम्यभावी है व्याकुलता रहित अर्थात् सर्वव्यापार रहित हैं — ऐसे संयत मुनि चतुर्विंशतिस्तव को करते हैं । अर्थात् पैरों में चार अंगुल के अंतराल को रखकर निश्चल अंग करके खड़े होकर मुनि शोभनरूप कायिक, वाचिक और मानसिक क्रिया वाले होते हुए स्तव आवश्यक करते हैं ॥७२॥
गाथार्थ – मैंने संक्षेप से यह चतुर्विंशतिनियुक्ति कही है, पुन: इसके बाद वन्दना निर्युक्ति को कहूँगा ॥ ७३ ॥
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