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आवश्यकनियुक्तिः
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अर्हत्सु च राग: व्यपगतरागेषु दोषरहितेषु ।
धर्मे च यः रागः श्रुते च यो द्वादशविधे ॥६९।। आयरियेसु य राओ समणेसु य बहुसुदे चरित्तड्ढे । एसो पसत्थराओ हवदि सरागेसु सव्वेसु ।।७०।।
आचार्येषु च रागः श्रमणेषु च बहुश्रुते चरित्राढ्ये ।
एष प्रशस्तरागो भवति सरागेषु सर्वेषु ॥७०॥ व्यपगतरागेष्वष्टादशदोषरहितेषु अर्हत्सु यः रागः या भक्तिस्तथा धर्मे यो रागस्तथा श्रुते द्वादशविधे यः रागः ॥६९॥
तथा-आचार्येषु राग: श्रमणेषु बहुश्रुतेषु च यो रागश्चरित्राढ्येषु च रागः स एष राग प्रशस्त: शोभनो भवति सरागेषु सर्वेष्विति ॥७०॥
अन्यच्च;तेसिं अहिमुहदाए अत्था सिझंति तह य भत्तीए । तो भक्ति रागपुव्वं वुच्चइ इदं ण हु णिदाणं ।।७१।।
तेषां अभिमुखतया अर्थाः सिद्धयन्ति तथा च भक्त्या ।
तस्मात् भक्तिः रागपूर्वमुच्यते एतन्न खलु निदानं ॥७१।। . तेषां जिनवरादीनामभिमुखतया भक्त्या चार्था वांछितेष्टसिद्धयः सिद्धयन्ति हस्तग्राह्या भवन्ति यस्मात्तस्माद्भक्ती रागपूर्वकमेतदुच्यते न हि निदानं, संसारकारणाभावादिति ॥७१॥
- आचार्यों में, श्रमणों में और चारित्रयुक्त बहश्रुतधारी (उपाध्याय आदि) में जो. राग है यह प्रशस्त राग सभी सरागी मुनियों में होता है ॥७०॥ ___आचारवृत्ति-रागद्वेष रहित अर्हतों में, धर्म में, द्वादशांग श्रुत में, आचार्यों में, मुनियों में, चारित्रयुक्त बहुश्रुतधारी उपाध्यायों आदि विद्वानों में जो राग होता है वह प्रशस्त-शोभन राग है वह सभी सरागी मुनियों में पाया जाता है । अर्थात् सराग संयमी मुनि इन सभी में अनुराग रूप शोभन-भक्ति करते ही हैं ॥६९-७०॥ ... और भी कहते हैं
गाथार्थ-पूर्वोक्त जिनेन्द्रदेव आदि के अभिमुख होने से तथा उनकी भक्ति से मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं । इसलिए भक्ति राग-पूर्वक कही गई है। यह वास्तव में निदान नहीं है ॥७१॥
. आचारवृत्ति-उन जिनवर आदि के अभिमुख होने से उनकी तरफ अपना मन लगाने से, उनकी भक्ति से वांछित इष्ट की सिद्धि हो जाती है-इष्ट मनोरथ
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