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आवश्यकनियुक्तिः
यत् तैस्तु दातव्यं तद्दत्तं जिनवरैः सर्वैः ।,
दर्शनज्ञानचारित्राणां एष त्रिविधानामुपदेशः ॥६७।। यत्तैस्तु दातव्यं तद्दत्तमेव जिनवरैः सर्वैः किं तद्दर्शनज्ञानचारित्राणां त्रिप्रकाराणां एष उपदेशोऽस्मात्किमधिकं यत्प्रार्थ्यते । इति एषा च समाधिबोधिप्रार्थना भक्तिर्भवति यतः ॥६७॥
अत आहभत्तीए जिणवराणं खीयदि जं पुव्वसंचियं कम्मं । आयरियपसाएण य विज्जा मंता य सिज्झंति ।।६८।।
भक्त्या जिनवराणां क्षीयते यत् पूर्वसंचितं कर्म ।
आचार्यप्रसादेन च विद्या मन्त्राश्च सिद्ध्यन्ति ॥६८॥ जिनवराणां भक्त्या पूर्वसंचितं कर्म क्षीयते विनश्यते यस्माद् आचार्याणां च भक्तिः किमर्थं ? आचार्याणां च प्रसादेन विद्या मंत्राश्च सिद्धिमुपगच्छंति यस्मादिति तस्माज्जिनानामाचार्याणां च भक्तिरियं न निदानमिति ॥६८॥
अन्यच्च-. अरहंतेसु य राओ ववगदरागेसु दोसरहिएसु । धम्मपि य जो राओ सुदे य जो बारसबिधति ।।६९।। :
____ आचारवृत्ति-उनके द्वारा जो देने योग्य था सो तो उन्होंने दे ही दिया है । वह क्या है ? वह सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय का उपदेश है । हम लोगों के लिए और इससे अधिक क्या है ? जिसकी प्रार्थना करें । इसलिए यह समाधि और बोधि की प्रार्थना भक्ति है ॥६७॥ .
इसलिए (भक्ति का माहात्म्य) कहते हैं
गाथार्थ-जिनवरों की भक्ति से जो पूर्व संचित कर्म हैं, वे क्षय हो जाते हैं, और आचार्य के प्रसाद से विद्या तथा मन्त्र सिद्ध हो जाते हैं ॥६८॥
आचारवृत्ति-जिनेन्द्रदेव की भक्ति से पूर्व संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं सो ठीक है, किन्तु आचार्यों की भक्ति किसलिए है ? आचार्यों के प्रसाद से विद्या
और मन्त्रों की सिद्धि होती है । इसलिए जिनवरों की और आचार्यों की यह भक्ति निदान नहीं है ॥६८॥
और भी कहते हैं
गाथार्थ-राग रहित और द्वेष रहित अर्हतदेव में जो राग है, धर्म में जो राग है, और द्वादशविध श्रुत (आचारांग आदि बारह अंग-आगमसूत्रों) में जो राग है-वह तीनों भक्ति है ॥६९॥ ..
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