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________________ आवश्यकनियुक्तिः जिनसूत्रश्रद्धानं दीक्षाभिमुखीकरणं वा समाधिं च मरणकाले सम्यक्परिणामं ददतु प्रयच्छन्तु । किं पुनरिदं निदानं न भवति ? न भवत्येव कस्माद्विभाषाऽत्र विकल्पोऽत्र कर्तव्यो यस्मादिति ॥६५॥ एतस्माच्चेदं निदानं न भवति यत:भासा असच्चमोसा णवरि हु भत्तीय भासिदा 'एसा । ण हु खीण रागदोषा दिति समाहिं च बोहिं च ।।६६।। भाषा असत्यमृषा केवलं हि भक्त्या भाषिता एषा । न हि क्षीणरागद्वेषा ददति समाधिं च बोधिं च ॥६६॥ असत्यमृषा भाषेयं किंतु भक्त्या भाषितैषा यस्मान्नहि क्षीणरागद्वेषा जिना ददते समाधिं बोधिं च । यदि दाने प्रवर्तेरन् सरागद्वेषाः स्युरिति ॥६६॥ अन्यच्चजं तेहिं दु दादव्वं तं दिण्णं जिणवरेहिं सव्वेहिं । दंसणणाणचरित्तस्स एस तिविहस्स उवदेसो ।।६७।। श्रद्धान अथवा दीक्षा के अभिमुख होना और समाधि अर्थात् मरण के समय सम्यक् परिणाम-ये तीन प्रदान करें । ... क्या यह निदान नहीं है ? नहीं है । क्यों ? क्योंकि यहाँ पर इसे विभाषा अर्थात् विकल्प समझना चाहिए ॥६५॥ __ गाथार्थ-यह असत्यमृषा भाषा है, वास्तव में यह केवल भक्ति से कही मई है, क्योंकि राग-द्वेष से रहित भगवान् समाधि और बोधि को नहीं देते हैं ॥६६॥ आचारवृत्ति-यह बोधि समाधि की प्रार्थना असत्यमृषा भाषा है, यह मात्र भक्ति से ही कही गई है, क्योंकि जिनके राग-द्वेष नष्ट हो चुके हैं वे जिनेन्द्र भगवान् समाधि और बोधि को नहीं देते हैं । यदि वे देने का कार्य करेंगे तो रागद्वेष सहित हो जावेंगे ॥६६॥ - और भी आगे कहते हैं___ गाथार्थ -उनके द्वारा जो देने योग्य था, सभी जिनवरों ने वह दे दिया है । वह दर्शन, ज्ञान, चारित्र-इन रत्नत्रय रूप तीनों का उपदेश है ॥६७॥ १. ३. कब, भासा । क दिंतु । २. क ०खीणपेज्जदोसा० । ४-५. अ, ब-धिं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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