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आवश्यकनियुक्तिः
अथोत्तमाः कथमित्याशंकायामाहमिच्छत्तवेदणीयं णाणावरणं चरितमोहं च । तिविहा तमाहु मुक्का तह्मा ते उत्तमा होति ।।६४।। - मिथ्यात्ववेदनीयं ज्ञानावरणं चारित्रमोहं च ।
त्रिविधात् तमसो मुक्ताः तस्मात् ते उत्तमा भवन्ति ॥६४॥ . मिथ्यात्ववेदनीयमश्रद्धानरूपं ज्ञानावरणं ज्ञानदर्शनयोरावरणं चारित्रमोहश्चैतत्रिविधं तमस्तस्मात् मुक्ता यतस्तस्मात्ते उत्तमाः प्रकृष्टा भवंतीति ॥६४॥
ते एवं विशिष्टा ममआरोग्ग बोहिलाहं दितु समाहिं च मे जिणवरिंदा । किं ण हु णिदाणमेदं णवरि विभासेत्थ कायव्वा ।।६५।। ___ आरोग्यबोधिलाभं ददतु समाधिं च मे जिनवरेन्द्राः ।
किं न खलु निदानमेतत् केवल-विभाषात्र कर्तव्या ॥६५॥ एवं विशिष्टास्ते जिनवरेन्द्रा मह्यमारोग्यं जातिजरामरणाभावं बोधिलाभं च
तीर्थंकर उत्तम क्यों हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं
गाथार्थ-मिथ्यात्व-वेदनीय, ज्ञानावरण और चारित्रमोह-इन तीन तम (कर्म) से मुक्त हो चुके हैं इसलिए वे तीर्थंकर उत्तम कहलाते हैं ॥६४॥
आचारवृत्ति-अश्रद्धानरूप मिथ्यात्व वेदनीय है अर्थात् मिथ्यात्वकर्म के उदय से जीव को सम्यक् तत्त्वों का श्रद्धान नहीं होता है । यह दर्शनमोह गाढ़ अंधकार के सदृश है । ज्ञानावरण से दर्शनावरण भी आ जाता है चूँकि वे सहचारी हैं । चारित्रमोह से मोहनीय की, दर्शनमोह से अतिरिक्त सारी प्रकृतियाँ आ जाती हैं । ये मोहनीय कर्म, ज्ञानावरण और दर्शनावरण तीनों ही कर्म ‘तम' (अन्धकार) के समान हैं इस ‘तम' से मुक्त हो जाने से ही तीर्थंकर उत्तम अर्थात् प्रकृष्ट कहे जाते हैं ॥६४॥
इन विशेषणों से विशिष्ट तीर्थंकर मुझे क्या देवें ?
गाथार्थ-वे जिनेन्द्रदेव मुझे आरोग्य, बोधि का लाभ और समाधि प्रदान करें । क्या यह निदान नहीं है ? अर्थात् नहीं है, यहाँ केवल विकल्प समझना चाहिए ॥६५॥
__ आचारवृत्ति—इस प्रकार से पूर्वोक्त विशेषणों से विशिष्ट वे जिनेन्द्रदेव मुझे आरोग्य-जन्मजरामरण का अभाव, बोधिलाभ-जिनसूत्र (जिनवाणी) का
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