SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कथं ते न कीर्तनीयाः व्यावर्णनीयाः सदेवमनुष्यासुरैर्लोकैर्दर्शनज्ञानचारित्रतपसां विनयो यैः प्रज्ञप्तः प्रतिपादितः ते चतुर्विंशतितीर्थंकराः कथं न कीर्त्तनीयाः ।।६२।। आवश्यक नियुक्तिः इति कीर्तनमधिकारं व्याख्याय केवलिनां स्वरूपमाह सव्वं केवलिकप्पं लोगं जाणंति तह य पस्संति । केवलणाणचरित्ता' तह्या ते केवली होंति ।। ६३ ।। सर्वं केवलकल्पं लोकं जानन्ति तथा च पश्यन्ति । केवलज्ञानचरित्राः तस्मात् ते केवलिनो भवन्ति ॥६३॥ किमर्थं केवलिन इत्युच्यन्त इत्याशंकायामाह — यस्मात्सर्वं निरवशेषं केवलिकल्पं केवलज्ञानविषय लोकमलोकं च जानन्ति तथा च पश्यंति केवलज्ञानमेव चरित्रं येषां ते केवलज्ञानचरित्राः परित्यक्ताशेषव्यापारास्तस्मात्ते केवलिनो भवतीति ॥ ६३॥ गाथार्थ–देव, मनुष्य और असुर इन सहित लोगों के द्वारा वे कीर्तन करने योग्य क्यों नहीं होंगे ? अर्थात् होंगे । क्योंकि उन्होंने दर्शन, चारित्र और तप के विनय का प्रज्ञापन किया है ॥६२॥ ज्ञान, १. ४९ आचारवृत्ति-वे चौबीस तीर्थंकर देव आदि सभी जनों द्वारा कीर्तन-वर्णनप्रशंसन करने योग्य इसीलिए हैं, क्योंकि उन्होंने दर्शन आदि के विनय का उपदेश दिया है ।।६२।। इस तरह कीर्तन अधिकार को कहकर अब केवलियों का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ — केवलज्ञान विषयक सर्वलोक को केवली जानते हैं तथा देखते हैं, एवं केवलज्ञान रूप चारित्रवाले हैं इसलिए वे केवली होते हैं ॥६३॥ कणीं । आचारवृत्ति - अर्हत को केवली क्यों कहते हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं जिस हेतु वे अर्हत भगवान् केवलज्ञान के विषयभूत सम्पूर्ण लोक और अलोक को जानते हैं तथा देखते हैं और जिनका चारित्र केवलज्ञान ही है अर्थात् जिनके अशेष व्यापार छूट चुके हैं इसलिए वे केवली कहलाते हैं ॥६३॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy