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________________ 2.1 उत्तराध्ययनसूत्र के नामकरण के सन्दर्भ में विभिन्न अवधारणायें उत्तराध्ययनसूत्र के नामकरण के विषय में विद्वानों ने अनेक दृष्टि से विचार किया है। इसके नामकरण में इस ग्रन्थ की ऐतिहासिकता भी सन्निहित है। अतः इस पर विचार करना आवश्यक है। 'उत्तराध्ययनसूत्र' शब्द उत्तर और अध्ययन इन दो शब्दों से बना है। उत्तर शब्द अनेकार्थक है। विद्वानों के द्वारा उत्तर शब्द की व्याख्या निम्न तीन रूपों में की गई है - (१) उत्कृष्ट या श्रेष्ठ (२) प्रश्नों या जिज्ञासाओं का समाधान अर्थात् उत्तर और (३) परवर्ती। 'अध्ययन' शब्द का सामान्य अर्थ पढ़ना है, किन्तु इसके भी निम्न पारिभाषिक अर्थ किये गये हैं 'उत्तराध्ययननियुक्ति के अनुसार जो आत्मा को स्वभाव की ओर ले जाने में सहायक हो तथा उपचित कर्मों के अपचय अर्थात् क्षय तथा नवीन कर्मों के असंचय का कारण हो वह अध्ययन है।' अध्ययन शब्द की यह व्याख्या निरोध अनुयोगद्वारसूत्र में भी उपलब्ध होती है। "विशेषावश्यकभाष्य' के अनुसार जिससे बोधि, संयम और मोक्ष का 'अधिक' अर्थात् विशिष्ट 'अयन' अर्थात् लाभ होता है, वह अध्ययन है। 'स्थानांगसूत्र' की टीका में जो विशेष रूप से पढ़ा जाता है, अथवा स्मृत या ज्ञात किया जाता है, उसे 'अध्ययन' कहा गया है। 'सूर्यप्रज्ञप्ति' की टीका के अनुसार जिनसे जाना जाता है, वे अध्ययन . हैं अध्ययन शब्द के उपर्युक्त सभी अर्थ यद्यपि 'उत्तराध्ययनसूत्र' के अध्ययन शब्द से सम्बन्ध रखते हैं, फिर भी 'उत्तराध्ययनसूत्र' में प्रयुक्त अध्ययन शब्द का मुख्य अर्थ परिच्छेद प्रकरण या अध्याय ही अधिक समीचीन प्रतीत होता है। इसके प्रत्येक परिच्छेद के लिए 'अध्ययन' शब्द का ही प्रयोग किया गया है। १'अज्झप्पणयणं, कम्माणं अवचओ उवचियाणं । अणुवचओ व णवाणं, तम्हा अज्झयणमिच्छति।।' - उत्तराध्ययननियुक्ति गाथा ६ (नियुक्ति संग्रह पृष्ठ ३६५) । २ 'अनुयोगद्वार सूत्र ६३१ - ('नवसुत्ताणि', लाडनूं पृष्ठ ४१०) । ३ 'जेण सुहप्पझयणं, अज्झप्पाणयणमहियं मयणं वा। बोहस्स संजमस्स व, मोक्खस्स व तो तयज्झणं ।।' - विशेषावश्यकभाष्य गाथा ६६०- पृष्ठ ३८६ । ४ 'अधीयते वा पठ्यते आधिक्येन स्मर्यते गम्यते वा तदित्यध्ययनम्' - स्थानांग टीका -पत्र ५ (उद्धृत् -निरूक्त कोश पृष्ठ ६)। ५ 'अधीयन्ते ज्ञायन्ते यैस्तान्यध्ययनानि ।' - सूर्यप्रज्ञप्ति टीका पत्र १४६ (उद्धृत् -निरूक्तकोश पृष्ठ ६) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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