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________________ संक्षेप में ऐसे प्रकरण जो आध्यात्मिक प्रगति की दिशा में ले जाते हैं, अध्ययन कहलाते हैं। अब हम उत्तर शब्द के साथ अध्ययन शब्द के समन्वय पर विचार करेंगे । श्रेष्ठ अर्थ वाचक 'उत्तर' शब्द के साथ 'अध्ययन' शब्द को जोड़ने पर उत्तराध्ययनसूत्र का अर्थ होगा श्रेष्ठ, आध्यात्मिक अथवा लोकोत्तर धर्म का प्रतिपादक अध्ययन 'उत्तराध्ययनसूत्र' है। इस सन्दर्भ में 'अभिधानराजेन्द्रकोश' में कहा गया है कि परम्परा से विनयश्रुत आदि छत्तीस अध्ययनों को प्रधान या श्रेष्ठ कहा गया है। अतः इनका संकलन जिसमें हो वह उत्तराध्ययनसूत्र है । अन्य अपेक्षा से पैंतालीस आगमों में यदि आचारांग को छोड़ दिया जाये तो जैनदर्शन के मूलभूत सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने वाला यह श्रेष्ठ आगम है, अतः इसे उत्तराध्ययनसूत्र कहा जाता है। इस प्रकार यह श्रेष्ठ अर्थ वाचक 'उत्तर' शब्द का प्रयोग इस आगम के लिये सार्थक है । ५७ - उत्तर शब्द का समाधान अर्थ करने पर उत्तराध्ययनसूत्र की विषयवस्तु के साथ उत्तर शब्द की पूर्ण संगति नहीं बैठती क्योंकि उत्तराध्ययनसूत्र का २, ६, १६, २३, २६ आदि कुछ अध्ययन प्रश्नोत्तर रूप या संवाद रूप हैं । शेष अध्ययनों में दृष्टान्त, कथानक, घटनाक्रम आदि हैं, यह सब समाधान वाचक उत्तराध्ययनसूत्र में कैसे समाहित हो सकता है ? 1 - कल्पसूत्र में उल्लेख है कि भगवान महावीर ने अपने अन्तिम समय में अपृष्ट बिना पूछे हुए प्रश्नों अर्थात् मानव की सहज जिज्ञासाओं का समाधान अर्थात् उत्तर छत्तीस अध्ययनों में दिया है। अतः अपृष्ट प्रश्नों के उत्तर रूप होने से इस देशना / उपदेश का नाम उत्तराध्ययनसूत्र हो गया । 'कल्पसूत्र' की इस बात की पुष्टि स्वयं उत्तराध्ययनसूत्र के छत्तीसवें अध्ययन की निम्न अन्तिम पंक्तियों से भी होती है- ज्ञातकुल में उत्पन्न वर्द्धमान स्वामी छत्तीस उत्तराध्ययनसूत्रों का प्रज्ञापन या प्रकाशन कर परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। उत्तराध्ययनसूत्र के टीकाकार ने भी इस Jain Education International ६ अभिधानराजेन्द्रकोश, द्वितीय भाग, पृष्ठ ७६४ । ७ 'तेणं कालेणं तेणं समएणं पणपन्नं अज्झयणांइं कल्लाणफलविवागाई पणपन्नं अज्झयणाई पावफलविवागाइं छत्तीसं अपुट्ठ वागरणाइं वागरित्ता पहाणं नामज्झयणं विभावेमाणे विभावेमाणे कालगए विइकंते समुज्जाइ छिन्नजाइजरामरणबंधणे सिद्धे, बुद्धे, मुत्ते अंतगड़े परि निब्बुडे ।' कल्पसूत्र (मूल) · ( महावीर चरित्र सूत्र १४७ पत्र ३८ ) । ८ 'इइ पाउकरे बुद्धे, नायए परिनिब्बुए । छत्तीसं उत्तरज्झाए, भवसिद्धीयसंमए । ' - - उत्तराध्ययनसूत्र ३६ / २६८/ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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