________________
तथ्य का समर्थन किया है। अपृष्ट व्याकरण की चर्चा हेमचन्द्राचार्य ने 'त्रिशष्टिशलाकाचरित्र' में भी की है, किन्तु उत्तराध्ययनसूत्र के नामकरण के सन्दर्भ में की गई यह कल्पना तर्कसंगत प्रतीत नहीं होती है, क्योंकि साहित्यिक दृष्टि से 'उत्तर' शब्द प्रश्नसापेक्ष है। प्रश्न पूछे बिना जो कुछ कहा जाये उसे व्याख्यान, विवेचन, विश्लेषण, विवरण, निरूपण आदि तो कहा जा सकता है, परन्तु उसे उत्तर कैसे कहा जा सकता है ? वस्तुतः 'कल्पसूत्र' एवं 'त्रिशष्टिशलाकाचरित्र' दोनों में वागरण या व्याकरण शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ विश्लेषण ही है । अतः यहां 'उत्तर' शब्द का व्याख्यान प्रकाशन अधिक तर्कसंगत लगता है। इस प्रकार भगवान महावीर द्वारा अन्तिम समय में किया गया तत्त्वों का प्रकाशन उत्तराध्ययनसूत्र
. पश्चात्वर्ती अर्थ के वाचक उत्तर शब्द के आधार पर संयोजित उत्तराध्ययनसूत्र शब्द की अन्य व्याख्यायें इस प्रकार हैं : नियुक्तिकार के अनुसार आचारांग के पश्चात् जिन अध्ययनों का अध्ययन किया जाता था, वे अध्ययन उत्तराध्ययनसूत्र कहलाते थे। चूंकि उत्तराध्ययनसूत्र का अध्ययन आचारांग के पश्चात् अथवा परवर्ती काल में दशवैकालिक के पश्चात् किया जाने लगा; अतः इसका नाम उत्तराध्ययनसूत्र हो गया। सामान्यतया विद्वानों ने उत्तराध्ययनसूत्र की व्याख्या इसी आधार पर की है कि जिन अध्ययनों का अध्ययन आचारांग अथवा दशवैकालिक के पश्चात् किया जाता है, वे उत्तराध्ययनसूत्र हैं।
___ डॉ. सागरमल जैन के अनुसार इसकी रचना 'प्रश्नव्याकरणसूत्र' के ऋषिभाषित अध्ययनों को छोड़कर शेष महावीरभाषित एवं आचार्यभाषित उत्तर अध्ययनों से हुई है, अतः यह उत्तराध्ययनसूत्र कहा जाता है।" परम्परागत दृष्टि से यह माना जाता है कि उत्तराध्ययनसूत्र का उपदेश भगवान महावीर ने निर्वाण प्राप्ति के पूर्व अर्थात् अन्तिम समय में दिया था। 'समवायांगसूत्र' में यह भी निर्देश है कि ५५ पापफलविपाक और ५५ पुण्यफलविपाक रूप ११० अध्ययनों का प्रवचन करते हुए भगवान महावीर परिनिर्वाण को उपलब्ध हुए। इस आधार पर डॉ. सागरमल जैन ने यह निष्कर्ष निकाला कि ऋषिभाषित के ४५, उत्तराध्ययनसूत्र के ३६, ज्ञाताधर्मकथांग के १६ एवं विपाकसूत्र के १० अध्ययनों का योग ११० होता है। यद्यपि डॉ साहब की
६ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ३४८३ ।। १० विशष्टिशालाकापुरूषचरित्र पर्व १० सर्ग १३ गाथा २२४ ११ व्यक्तिगत चर्चा के आधार पर १२ समवायांग, ५५/४
- शान्त्याचार्य। - (उद्धृत जैनागमदिग्दर्शन पृष्ठ १३०)।
- (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड प्रथम, पृष्ठ ८८६) ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org