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यह विचारणा परम्परागत दृष्टि से स्थानांग" में उल्लिखित प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु एवं उसके परिवर्तन की दृष्टि से पूर्णतः सामंजस्य रखती है; फिर भी इसमें निहित सार्थकता विद्वानों के लिए विचारणीय है। हम यह भी देखते हैं कि ग्रन्थों के परवर्ती भागविशेष को उत्तर कहा जाता है; यथा उत्तरकाण्ड, उत्तररामचरितमानस, उत्तरपुराण आदि। क्या इस आधार पर प्रश्नव्याकरण के उत्तर अध्ययनों का नामकरण तो उत्तराध्ययनसूत्र नहीं हुआ, यह भी चिन्तनीय है।
'उत्तराध्ययनसूत्र' को प्रभु महावीर की अन्तिम देशना मानने पर एक प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि जब यह इतना महत्त्वपूर्ण आगम है तो इसे अंग आगम के अन्तर्गत क्यों नहीं रखा गया है। इस प्रश्न का सन्तोषजनक समाधान डॉ. सागरमल जैन के लेख 'प्रश्नव्याकरणसूत्र' की प्राचीन विषय वस्तु' में उपलब्ध हो जाता है। डॉ. साहब के अनुसार उत्तराध्ययनसूत्र, दसवें अंग आगम ‘प्रश्नव्याकरण का ही अंश है।
आगमवेत्ता विद्वत्जन भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि 'प्रश्नव्याकरणसूत्र' की विषयवस्तु समय समय पर बदलती रही है। अतः डॉ. साहब ने स्थानांग एवं समवायांग के उल्लेखों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि प्रथम संस्करण में प्रत्येकबुद्धभाषित, आचार्यभाषित और महावीरभाषित के नाम से जो सामग्री थी, उसमें प्रत्येकबुद्धभाषित या ऋषिभाषित सामग्री आज ऋषिभाषित में तथा आचार्यभाषित एवं महावीरभाषित उपदेश उत्तराध्ययनसूत्र में बहुत कुछ सुरक्षित
___ आगमसाहित्य में नवीन सामग्री को जोड़ने एवं आगमसाहित्य से सामग्री लेकर नवीन ग्रन्थों के निर्माण के प्रयास जैनपरम्परा में होते रहे हैं, इसके अनेक उदाहरण हैं यथा- दशवैकालिकसूत्र, कल्पसूत्र, निशीथ आदि। इसी तरह डॉ. सागरमल जैन ने उत्तराध्ययनसूत्र को भी प्रश्नव्याकरणसूत्र का अंश माना हैं। साथ ही उन्होंने निम्न प्रमाण भी दिये हैं - सर्वप्रथम उत्तराध्ययनसूत्र नाम ही इस तथ्य को प्रकट करता है कि यह किसी ग्रन्थ के उत्तर अध्ययनों से बना हुआ ग्रन्थ है। इसका तात्पर्य यह है कि उत्तराध्ययनसूत्र ही विषय वस्तु पूर्व में किसी ग्रन्थ की उत्तरवर्ती सामग्री रही होगी। इस सन्दर्भ में दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रमाण यह है कि 'उत्तराध्ययननियुक्ति में इस बात का स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि उत्तराध्ययनसूत्र
१३ स्थानांगसूत्र - १०/११६
- (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड प्रथम, पृष्ठ ८१४)। १४ 'प्रश्नव्याकरणसूत्र की प्राचीन विषयवस्तु की खोज' - डॉ. सागरमल जैन - 'डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ' पृष्ठ ७४।
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